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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्मबन्ध की अपेक्षा अनन्तरोपपन्नक चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों की प्ररूपणा
१०. जहा पावे एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ।
[१०] जिस प्रकार पापकर्म के विषय में कहा है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के विषय में भी (अनन्तरोपपन्नक-आश्रित) दण्डक कहना चाहिए।
११. एवं आउयवज्जेसु जाव अंतराइए दंडओ। [११] इसी प्रकार आयुष्यकर्म को छोड़ कर अन्तरायकर्म तक दण्डक कहना चाहिए। १२. अणंतरोववन्नए णं भंते ! नेरतिए आउयं कम्मं किं बंधी० पुच्छा। गोयमा ! बंधी, न बंधति, बंधिस्सति।
[१२ प्र.] भगवन् ! क्या अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ने आयुष्य कर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भगीय प्रश्न।
[१२ उ.] गौतम ! (उसमें केवल तृतीय भंग ही पाया जाता है, अर्थात्-) उसने (पहले आयुष्यकर्म) बांधा था, वर्तमान में नहीं बांधता और भविष्य में बांधेगा।
१३. सलेस्से णं भंते ! अणंतरोवन्नए नेरतिए आउयं कम्मं किं बंधी० ? एवं चेव ततिओ भंगो। [१३ प्र.] भगवन् ! सलेश्य अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ने क्या आयुष्यकर्म बांधा था? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। [१३ उ.] गौतम ! उसी प्रकार (पूर्ववत्) तृतीय भंग होता है। १४. एवं जाव अणागारोवउत्ते। सव्वत्थ वि ततिओ भंगो। [१४] इसी प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त पद तक सर्वत्र तृतीय भंग समझना चाहिए। १५. एवं मणुस्सवजं जाव वेमाणियाणं। [१५] इसी प्रकार मनुष्यों के अतिरिक्त वैमानिकों तक तृतीय भंग होता है।
१६. मणुस्साणं सव्वत्थ ततिय-चउत्था भंगा, नवरं कण्हपक्खिएसु ततिओ भंगो। सव्वेसिं णाणात्ताई ताई चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति।
॥छव्वीसइमे बंधिसए : बितिओ उद्देसओ समत्तो॥२६-२॥