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छब्बीसवाँ शतक : उद्देशक-२]
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७. मणुस्साणं अलेस्स-सम्मामिच्छत्त-मणपज्जवनाण-केवलनाण-विभंगनाण-नोसण्णोवउत्तअवेयग-अकसायि-मणजोग-वइजोग-अजोगि, एयाणि एक्कारस पयाणि णं भण्णंति।
[७] मनुष्यों में अलेश्यत्व, सम्यमिथ्यात्व, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, विभंगज्ञान, नोसंज्ञोपयुक्त, अवेदक, अकषायी, मनोयोग, वचनयोग और अयोगी ये ग्यारह पद नहीं कहने चाहिए।
८. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा नेरतियाणं तहेव तिण्णि न भण्णंति। सव्वेसिं जाणि सेसाणि ठाणाणि सव्वत्थ पढम-बितिया भंगा।
[८] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में नैरयिकों की वक्तव्यता के समान पूर्वोक्त तीन पद (सम्यग्मिथ्यात्व, मनोयोग और वचनयोग) नहीं कहने चाहिए। इन सबके जो शेष स्थान हैं, उनमें सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग जानना चाहिए।
९. एगिंदियाणं सव्वत्थ पढम-बितिया भंगा। [९] एकेन्द्रिय जीवों के सभी स्थानों में प्रथम और द्वितीय भंग कहना चाहिए।
विवेचन–अनन्तरोपपन्नक : स्वरूप और दण्डक-'अनन्तरोपपन्नक' उसे कहते हैं, जिसकी उत्पत्ति का प्रथम समय ही हो। इस दूसरे उद्देशक में नैरयिक आदि चौवीस ही दण्डकों में उपर्युक्त ग्यारह द्वारों में पापकर्म आदि के बन्ध की चातुर्भंगिक दृष्टि से प्ररूपणा की गई है। प्रथम उद्देशक में औधिक जीव और नारक आदि चौवीस, इस प्रकार पच्चीस दण्डक कहे हैं किन्तु इस द्वितीय उद्देशक में नैरयिक आदि चौवीस दण्डक ही कहने चाहिए, क्योंकि औधिक जीव के साथ अनन्तरोपपन्नक आदि विशेषण नहीं लगाये जा सकते।
अनन्तरोपपन्नक में पृच्छा के अयोग्यपद-अनन्तरोपपन्नक नैरयिक आदि में प्रथम और द्वितीय, ये दो भंग ही पाये जाते हैं, क्योंकि उसमें मोहरूप पापकर्म के अबन्धक का अभाव है। अबन्धकत्व सूक्ष्मसम्परायादि गुणस्थानों में होता है और वे गुणस्थान नैरयिक आदि के नहीं होते। लेश्यादि पद सामान्यतया नैरयिक आदि में होते हैं। जो पद यद्यपि नारकों में उक्त सम्यग्मिथ्यात्व आदि तीनों पद होते हैं, किन्तु अनन्तरोपपन्नक नैरयिक आदि में अपर्याप्त होने के कारण नहीं होते, अतः उनके विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए, यह कथन मूलपाठ में यत्र-तत्र किया गया है। वे पद ये हैं—मिश्रदृष्टि, मनोयोग, वचनयोग। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में इन तीनों के अतिरिक्त अवधिज्ञान और विभंगज्ञान, ये दो पद भी अप्रष्टव्य हैं। मनुष्यों में अलेश्यत्व, सम्यग् मिथ्यात्व, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान, विभंगज्ञान, नोसंज्ञोपयुक्त, अवेदी, अकषायी, मनोयोग, वचनयोग और अयोगित्व, इन ग्यारह पदों के विषय में नहीं कहा जाता। पर्याप्तक होने के बाद ये होते हैं।'
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९३५
(ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भाग ७, पृ. ३५६७