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________________ छव्वीसवाँ शतक : उद्देशक-२] [५४९ [१६] मनुष्यों में सभी स्थानों में तृतीय और चतुर्थ भंग कहना चाहिए, किन्तु कृष्णपाक्षिक मनुष्यों में तृतीय भंग ही होता है। सभी स्थानों में नागत्व (भिन्नता) पूर्ववत् वही समझनी चाहिए। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–अनन्तरोपपत्रक की आयुष्यकर्मबन्ध-विषयक चतुर्भंगी चर्चा—अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में आयुष्यकर्म के विषय में सभी स्थानों में तीसरा और चौथा भंग पाया जाता है, क्योंकि अनन्तरोपपत्रक मनुष्य आयुष्य नहीं बांधता, वह बाद में बांधेगा, इस अपेक्षा से उसमें तृतीय भंग घटित होता है। यदि मनुष्य चरमशरीरी हो तो वर्तमान में आयुष्यकर्म नहीं बांधता और न भविष्य में बांधेगा। इस प्रकार चतुर्थ भंग घटित होता है। कृष्णपाक्षिक अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में केवल तीसरा भंग ही होता है। आशय यह है कि आयुष्यकर्म की पृच्छा में मनुष्य के अतिरिक्त शेष तेईस दण्डकों में एकमात्र तृतीय भंग ही बताया गया है। मनुष्यों में भी कृष्णपाक्षिक को छोड़ कर शेष अनन्तरोपपन्नक मनुष्यों में पाये जाने वाले ३५ बोलों में तीसरा और चौथा भंग बताया गया है। सभी नैरयिक जीवों में पापकर्मदण्डक में जो भिन्नताएँ कही हैं, वे सभी आयुष्यदण्डक में भी कहनी चाहिए। ॥ छव्वीसवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त॥ *** १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९३५... १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९३५ (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भाग ७, पृ. ३५६८
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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