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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[२८ उ.] गौतम ! किसी अकषायी जीव ने (भूतकाल में पापकर्म) बांधा था, किन्तु अभी नहीं बांधता है. मगर भविष्य में बांधेगा तथा किसी जीव ने बांधा था, किन्तु अभी नहीं बांधता है और आगे भी नहीं बांधेगा।
विवेचन—सकषायी-अकषायी जीवों में चतुर्भंगी चर्चा—सकषायी जीवों में पूर्वोक्त चारों भंग पाये जाते हैं। उनमें से प्रथम भंग अभव्यजीव की अपेक्षा से है। दूसरा भंग उस भव्य जीव की अपेक्षा से है. जिसका मोहनीयकर्म क्षय होने वाला है तथा उपशमक सूक्ष्मसम्पराय जीव की अपेक्षा से तीसरा भंग है और चौथा भंग क्षपक सूक्ष्मसम्परायी जीव की अपेक्षा से है। इसी प्रकार लोभकषायी जीवों के विषय में भी पूर्वोन, अपेक्षा से इन चारों भंगों की संभावना समझनी चाहिए। क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी जीवों में पहला और दूसरा ये दो ही भंग पाये जाते हैं, पहला भंग अभव्य की अपेक्षा से है और दूसरा भंग भयविशेष की अपेक्षा से है। उनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं पाया जाता, क्योंकि क्रोधादि के उदय में अबन्धकता नहीं
कषायी जीवों में तीसरा और चौथा. ये दो भंग पाए जाते हैं। तीसरा भंग उपशमक अकषायी में और चौथा भंग क्षपक अकषायी में पाया जाता है। दसवाँ स्थान : सयोगी-अयोगी जीव को लेकर पापकर्मबन्ध-प्ररूपणा
२९. सजोगिस्स चउभंगो। [२९] सयोगी जीवों में चारों भंग घटित होते हैं। ३०. एवं मणजोगिस्स वि, वइजोगिस्स वि, कायजोगिस्स वि। [३०] इसी प्रकार मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव में चारों भंग पाये जाते हैं। ३१. अजोगिस्स चरिमो। [३१] अयोगी जीव में अन्तिम एक भंग पाया जाता है।
विवेचन—सयोगी, त्रियोगी एवं अयोगी चातुर्भगिक चर्चा-सयोगी में भव्य, भव्य-विशेष, उपशमक और क्षपक की अपेक्षा क्रमशः चारों भंग पाये जाते हैं। अयोगी के वर्तमान में पापकर्म का बंध नहीं होता और न भविष्य में होगा, इस दृष्टि से उसमें एकमात्र चौथा भंग ही पाया जाता है। ग्यारहवाँ स्थान : साकार-अनाकारोपयुक्त जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध-प्ररूपणा
३२. सागारोवउत्ते चत्तारि। [३२] साकारोपयुक्त जीव में चारों ही भंग पाये जाते हैं। ३३. अणागारोवउत्ते वि चत्तारि भंगा।
.. भगवती अ. वनि पत्र १३०
मावत' अ. वनि पत्र १३०