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छब्बीसवाँ शतक : उद्देशक-१]
[३३] अनाकारोपयुक्त जीव में भी उक्त चारों भंग होते हैं।
विवेचन—साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी जीवों में चतुर्भंगी-इन दोनों प्रकार के उपयोग वाले जीवों में पूर्वोक्त चारों भंग पाये जाते हैं। इसका स्पष्टीकरण पूर्ववत् जानना चाहिए।' चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों की अपेक्षा पापकर्मबन्ध की चातुर्भंगिक-प्ररूपणा
३४. नेरतिए णं भंते ! पावं कम्मं किं बंधी, बंधति, बंधिस्सति०? गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी० पढम-बितिया।
[३४ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा ? इत्यादि । चातुभंगीयुक्त प्रश्न !)
[३४ उ.] गौतम ! किसी नैरयिक जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा, इस प्रकार पहला आर । पूर्ववत्) दूसरा भंग जानना चाहिए।
३५. सलेस्से णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं०? एवं चेव। [३५ प्र.] भगवन् ! क्या सलेश्य नैरयिक जीव ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि चतुर्भीयुक्त प्रश्न । [३५ उ.] गौतम ! यहाँ भी पूर्ववत् पहला और दूसरा भंग जानना।
३६. एवं कण्हलेस्से वि, नीललेस्से वि, काउलेस्से वि। __ [३६] इसी प्रकार कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले जीव में भी प्रथम और द्वितीय भंग पाया जाता है।
३७. एवं कण्हपक्खिए, सुक्कपक्खिए; सम्मद्दिट्टी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी; नाणी, आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी; अन्नाणी, मतिअन्नाणी, सुयअन्नाणी, विभंगअन्नाणी; आहारसन्नोवउत्ते जाव परिग्गहसनोवउत्ते; सवेयए, नपुंसकवेयए; सकसायी जाव लोभकसायी; सयोगी, मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी; सागरोवउत्ते अणागारोवउत्ते। एएसु सव्वेसु पएसु पढम-बितिया भंगा भाणियव्वा।
[३७] इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक, सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ज्ञानी, आभिनिवोधिकज्ञानी. श्रुतज्ञानी. अवधिज्ञानी, अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी, आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त, सवेदी, नपुंसकवेदी, सकषायी यावत् लोभकषायी, सयोगी, मनोयागी, वचनयोगी. काययोगी याकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त, इन सब पदों में प्रथम और द्वितीय भंग कहना चाहिए।
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भगवतो. अ. वृत्ति पत्र १३०