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छब्बीसवाँ शतक : उद्देशक-१] अष्टम स्थान : सवेदक-अवेदक जीव को लेकर पापकर्मबन्ध प्ररूपणा
२२. सवेयगाणं पढम-बितिया। एवं इत्थिवेयग-पुरिसवेयग-नपुंसगवेयगाण वि।
[२२] सवेदक जीवों में प्रथम और द्वितीय भंग पाये जाते हैं। इसी प्रकार स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपंसकवेदी में भी प्रथम और द्वितीय भंग पाये जाते हैं।
२३. अवेयगाणं चत्तारि। [२३] अवेदक जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं।
विवेचन—सवेदी-अवेदी में चतुर्भंगी की चर्चा—जब तक वेदोदय रहता है, तब तक जीव मोहनीयकर्म का क्षय और उपशम नहीं कर सकता, इसलिए पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं । अवेदी जीवों में म्ववेद उपशान्त हो, किन्तु सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान की प्राप्ति न हो, तब तक वे मोहनीयकर्म को बांधते हैं और बांधेगे अथवा वहाँ से गिर कर भी बांधेगे। वेद क्षीण हो जाने पर पापकर्म बांधता है, किन्तु सूक्ष्मसम्परायादि अवस्था में नहीं बांधता। उपशान्तवेदी जीव सूक्ष्मसम्परायादि अवस्था में पापकर्म नहीं बांधता, किन्तु वहाँ से गिरने के बाद बांधता है। वेद का क्षय हो जाने पर सूक्ष्मसम्परायादि गुणस्थानों में पापकर्म नहीं बांधता और आगे भी नहीं बांधेगा।' नवम स्थान : सकषायी-अकषायी जीव को लेकर पापकर्मबन्ध प्ररूपणा
२४. सकसाईणं चत्तारि। [२४] सकषायी जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। २५. कोहकसायीणं पढम-बितिया। [२५] क्रोधकषायी जीवों में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है। २६. एवं माणकसायिस्स वि, मायाकसायिस्स वि। [२६] इसी प्रकार मानकषायी तथा मायाकषायी जीवों में भी ये दोनों भंग पाये जाते हैं। २७. लोभकसायिस्स चत्तारि भंगा। [२७] लोभकषायी जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। २८. अकसायी णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी० पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी, न बंधति, बंधिस्सति। अत्थेगतिए बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति।
[२८ प्र.] भगवन् ! क्या अकषायी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि प्रश्न। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९३०