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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
सलेश्यी जीव में चारों भंग पाए जाते हैं, क्योंकि शुक्ललेश्यी जीव भी पापकर्म का बन्धक होता है। कृष्णादि पांच लेश्यावाले जीवों में पहला और दूसरा, ये दो भंग ही पाए जाते हैं, क्योंकि उन जीवों के वर्तमानकाल में मोहनीयरूप पापकर्म का क्षय या उपशम नहीं है, इसलिए अन्तिम दो (तीसरा, चौथा) भंग उनमें नहीं पाया जाता है। कृष्णादि पांच लेश्यावाले जीवों में दूसरा भंग (बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा) इसलिए सम्भव है कि कालान्तर में क्षपकदशा प्राप्त होने पर वह नहीं बांधेगा।अलेश्यी जीव में सिर्फ एक चौथा भंग ही पाया जाता है, क्योंकि जीव अयोगीकेवली-अवस्था में अयोगी होता है तथा लेश्या के अभाव में (अलेश्यी) जीव अबन्धक (पुण्य-पापकर्म का बन्ध न करने वाला) होता है।' तृतीय स्थान : कृष्ण-शुक्लपाक्षिक को लेकर पापकर्मबन्ध प्ररूपणा
१०. कण्हपक्खिय णं भंते ! जीवे पावं कम्मं० पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी, पढम-बितिया भंगा।
[१० प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णपाक्षिक जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि प्रश्न।
[१० उ.] गौतम ! किसी जीव ने पापकर्म बांधा था; इत्यादि पहला और दूसरा भंग (इस विषय में) जानना चाहिए।
११. सुक्कपक्खिए णं भंते ! जीवे० पुच्छा। गोयमा ! चउभंगो भाणियव्वो। [११ प्र.] भगवन् ! क्या शुक्लपाक्षिक जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है, और बांधेगा? इत्यादि
प्रश्न।
[११ उ.] गौतम ! (इस विषय में) चारों ही भंग जानने चाहिए।
विवेचन—कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक की परिभाषा—जिन जीवों का संसार-परिभ्रमणकाल अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन-काल से अधिक है, वे कृष्णपाक्षिक कहलाते हैं और जिन जीवों का संसार-परिभ्रमणकाल अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन-काल से अधिक नहीं है; जो अर्द्धपुद्गलपरावर्तन-काल के भीतर ही मोक्ष चले जाएंगे, वे शुक्लपाक्षिक कहलाते हैं।
कृष्णपाक्षिक जीवों में प्रथम और द्वितीय ये दो भंग पाये जाते हैं, क्योंकि वर्तमानकाल में उन जीवों में पापकर्म की अबन्धकता नहीं है, इसलिए भविष्यत्काल में भी उनके बंध तो चालू रहेगा। प्रश्न होता है
१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९२९
(ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा.७, पृ. ३५४९