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पच्चीसौं शतक : उद्देशक-७]
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इकतीस कवल-प्रमाण आहार करना 'किंचित् ऊनोदरी' है और पूरे बत्तीस कवल-प्रमाण आहार करना 'प्रमाणोपेत ऊनोदरी' है। पूर्ण आहार तप नहीं माना जाता। उसमें से एक कौर भी आहार कम करे वहाँ तक थोड़ा तप अवश्य है। इस प्रकार ऊनोदरी तप करने वाला साधु 'प्रकामरसभोजी' नहीं है, ऐसा कहा जाता है। इस ऊनोदरी तप का विशेष विवेचन सातवें शतक के प्रथम उद्देशक में किया गया है।
भाव-ऊनोदरी के अनेक भेद कहे हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ के आवेश को कम करना, अल्प वचन बोलना, क्रोध के वश यद्वा-तद्वा न बोलना (झंझा न करना) तथा हृदयस्थ कषाय (तुमन्तुम) को शान्त करना (मन में कुढ़ना व चिढ़ना नहीं) 'भाव-ऊनोदरी' है।' भिक्षाचर्या, रसपरित्याग एवं कायक्लेश तप की प्ररूपणा
२०८. से किं तं भिक्खायरिया ?
भिक्खायरिया अणेगविहा पन्नत्ता, तं जहा–दव्वाभिग्गहचरए, खेत्ताभिग्गहचरए, जहा उववातिए जाव सुद्धेसणिए, संखादत्तिए। से त्तं भिक्खायरिया।
[२०८ प्र.] भगवन् ! भिक्षाचर्या कितने प्रकार की है ? __ [२०८ उ.] गौतम! भिक्षाचर्या अनेक प्रकार की कही है। यथा-द्रव्याभिग्रहचरक भिक्षाचर्या, क्षेत्राभिग्रहचरक भिक्षाचर्या, इत्यादि वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार शुद्धषणिक, संख्यादत्तिक, यहाँ तक कहना। यह भिक्षाचर्या का वर्णन हुआ।
२०९. से किं तं रसपरिच्चाए ?
रसपरिच्चाए अणेगविधे पन्नत्ते, तं जहा—निव्वितिए, पणीतरसविवज्जए जहा उववाइए जाव लूहाहारे। से तं रसपरिच्चाए।
[२०९ प्र.] भगवन् ! रस-परित्याग के कितने प्रकार हैं ?
[२०९ उ.] गौतम! रस-परित्याग अनेक प्रकार का कहा गया है। यथा—निर्विकृतिक, प्रणीतरसविवर्जक इत्यादि औपपातिकसूत्र में कथित वर्णन के अनुसार यावत् रूक्षाहार-पर्यन्त कहना चाहिए।
२१०. से किं तं कायकिलेसे ?
कायकिलेसे अणेगविधे पन्नत्ते, तं जहा–ठाणादीए, उक्कुडुयासणिए, जहा उववातिए जाव सव्वगायपडिकम्मविप्पमुक्के। से त्तं कायकिलेसे।
[२१० प्र.] भगवन् ! कायक्लेश तप कितने प्रकार का है ?
[२१० उ.] गौतम! कायक्लेश तप अनेक प्रकार का कहा है। यथा स्थानातिग , उत्कुटुकासनिक इत्यादि औपपातिकसूत्र के अनुसार यावत् सर्वगात्रप्रतिकर्मविप्रमुक्त तक कहना चाहिए।
२. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९२४
(ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा.७. पृ. ३५००-३५०१
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