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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-भिक्षाचर्या का स्वरूप और प्रकार-विविध प्रकार के अभिग्रह लेकर द्रव्य-क्षेत्रकालभाव से भिक्षा संकोच करते हुए चर्या (अटन) करना—भिक्षाचर्या-तप कहलाता है। अभिग्रह-पूर्वक भिक्षाचरी करने से वृत्ति-संकोच होता है, इसलिए इसे 'वृतिसंक्षेप' कहते हैं। औपपातिकसूत्र में द्रव्याभिग्रहचरक, क्षेत्राभिग्रहचरक, कालाभिग्रहचरक, भावाभिग्रहचरक इत्यादि कई भेद किए हैं । शुद्ध एषणा, अर्थात् शंकितादि दोषों का परित्याग करते हुए शुद्ध पिण्ड ग्रहण करना शुद्धैषणिकभिक्षा है तथा पांच, छह अथवा सात आदि दत्तियों की गणनापूर्वक भिक्षा करना संख्यादत्तिक भिक्षा है। इसके अतिरिक्त भिक्षा के आचाम्ल (आयंबिल), आयाम-सिक्थभोजी, अरसाहार इत्यादि अनेक भेद औपपातिकसूत्र में बताए हैं। ___रसपरित्याग : स्वरूप और प्रकार-दुग्ध, दधि, घृत, तेल, मिष्ठान ये पांचों रस विकृतिजनक होने से इन्हें विकृति (विग्गई) कहा जाता है। इन पांचों विकृतिजनक रसों (विकृतियों) का तथा प्रणीत, स्निग्ध, गरिष्ठ एवं स्वादिष्ट खाद्य-पेय वस्तुओं के रस (स्वाद) का त्याग करना रसपरित्याग कहलाता है। यह एक प्रकार का अस्वादव्रत है। इसमें छहों रसों (तिक्त, कटु, मधुर, कसैला, खट्टा आदि) का तथा विकृतिजनक पदार्थों का त्याग किया जाता है। इसीलिए उसके निर्विकृतिक, प्रणीतरसविवर्जक, रूक्षाहारक आदि अनेक भेद औपपातिकसूत्र में वर्णित हैं।
कायक्लेश : परिभाषा तथा प्रकार-आध्यात्मिक तप, जप, संयम, आदि की साधना एवं धर्मपालन के लिए काय यानी शरीर को शास्त्रसम्मत-रीति के समभाव पूर्वक क्लेश (कष्ट) पहुँचाना कायक्लेशतप है। इसके वीरासन, उत्कुटुकासन, दण्डासन आदि आसनों का सेवन करना, लोच करना, शरीर की शोभाशुश्रूषा-शृंगारादि परिकर्म का त्याग करना इत्यादि अनेक प्रकार औपपातिकसूत्र में बताए हैं। इसके स्थानस्थितिक, स्थानातिग, प्रतिमास्थायी, नैषधिक इत्यादि और भी अनेक भेद हैं। प्रतिसंलीनता तप के भेद एवं स्वरूप का निरूपण
२११. से किं तं पडिसंलीणया ?
पडिसंलीणया चउब्विहा पन्नत्ता, तं जहा—इंदियपडिसलीणया कसायपडिसंलीणया जोगपडिसंलीणया विवित्तसयणासणसेवणया। .
[२११ प्र.] भगवन् ! प्रतिसंलीनता कितने प्रकार की कही है ?
[२११ उ.] गौतम! प्रतिसंलीनता चार प्रकार की कही है। यथा—(१) इन्द्रियप्रतिसंलीनता, (२) कषायप्रतिसंलीनता, (३) योगप्रतिसंलीनता और (४) विविक्तशय्यासनप्रतिसंलीनता।
(क) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा.७, पृ. ३५०१ (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९२४ (क) वही, भा. ७, पृ. ३५०२ (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९२४ (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्र ९२४ (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७, पृ. ३५०३
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