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________________ पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-७] [४८९ (५) नैषेधिकी-आहार से लौटकर उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'निसीहि-निसीहि' कहे । अर्थात् जिस कार्य के लिए मैं बाहर गया था उस कार्य से निवृत्त होकर आगया हूँ, इस प्रकार उस कार्य का निषेध करना नैषेधिकी समाचारी है। (६) आपृच्छना—किसी कार्य में प्रवृत्त होने से पूर्व गुरुदेव से पूछना—'भगवन् ! मैं यह कार्य करूँ?' यह आपृच्छना समाचारी है। (७) प्रतिपृच्छना-गुरु महाराज ने पहले जिस कार्य का निषेध किया, उसी कार्य में आवश्यकतानुसार प्रवृत्त होना हो तो गुरुदेव से पूछना—'भगवन् ! आपने पहले इस कार्य के लिए निषेध किया था, किन्तु अब यह कार्य करना आवश्यक है। आप अनुज्ञा दें तो करूँ' इस प्रकार पुनः पूछना प्रतिपृच्छना समाचारी है। (८) छन्दना-लाए हुए आहार के लिए दूसरे साधुओं को आमन्त्रण देना कि यदि आपके उपयोग में आ सके तो इस आहार को ग्रहण कीजिए, इत्यादि 'छन्दना' समाचारी है। (९) निमंत्रणा—आहार लाने के लिए दूसरे साधुओं को निमंत्रण देना या उनसे पूछना कि क्या आपके लिए आहार लाऊँ ? यह 'निमंत्रणा' समाचारी है। (१०) उपसम्पदा–ज्ञानादि प्राप्त करने के लिए गुरु की आज्ञा प्राप्त कर अपना गण छोड़कर किसी विशेष आगमज्ञ गुरु के या आचार्य के सान्निध्य में रहना, 'उपसम्पद' समाचारी है। यह दस प्रकार की समाचारी साधु के संयम-पालन में उपयोगी आचार-पद्धति है।' पंचम प्रायश्चित्तद्वार : प्रायश्चित्त के दस भेद १९५. दसविहे पायच्छित्ते पन्नत्ते, तं जहा—आलोयणारिहे १ पडिक्कमणरिहे २ तदुभयारिहे ३ विवेगारिहे ४ विउसग्गारिहे ५ तवारिहे ६ छेदारिहे ७ मूलारिहे ८ अणवठ्ठप्पारिहे ९ पारंचियारिहे १०।[दारं ५]। [१९५] दस प्रकार का प्रायिश्चत कहा है। यथा—(१) आलोचनाह, (२) प्रतिक्रमणार्ह, (३) तदुभयार्ह, (४) विवेकाह, (५) व्युत्सर्गार्ह, (६) तपार्ह , (७) छेदार्ह, (८) मूलार्ह, (९) अनवस्थाप्यार्ह और (१०) पारांचिकार्ह । [पंचम द्वार] विवेचन–प्रायश्चित्त और उसके दस भेदों का स्वरूप-यहाँ प्रायः शब्द अपराध या पाप अथवा अतिचार अर्थ में और चित्त शब्द उसकी विशुद्धि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पाप-दोषों की विशुद्धि या आत्मशुद्धि के लिए गुरु या विश्वस्त आचार्य के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना और उनके द्वारा प्रदत्त आलोचनादि रूप प्रायश्चित्त को स्वीकार करना प्रायश्चित्त का हार्द है । प्रायश्चित्त दस प्रकार का है, जो गुरु आदि द्वारा दोषी साधु को स्वेच्छा से आलोचनादि करने पर दिया जाता है। (१) आलोचनाह-संयम में लगे हुए दोष को गुरु आदि के समक्ष स्पष्ट वचनों से सरलतापूर्वक १. (क) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भा.१६, पृ. ४१५-१६ (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा.७, पृ. ३४९१-९२
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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