________________
४४८ ]
[६ प्र.] भगवन् ! यथा यथाख्यात - संयत कितने प्रकार का कहा गया है। [६ उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा—छद्मस्थ और केवली ।
संयत-स्वरूप
७.
सामाइयम्मि उ कए चाउज्जामं अणुत्तर धम्मं । तिविहेण फासयंतो सामाइयसंजयो स खलु ॥ १ ॥ छेत्तूण य परियागं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । धम्मम्मि पंचजामे छेदोवट्ठावणो स खलु ॥२॥ परिहरति जो विसुद्धं तु पंचजामं अणुत्तरं धम्मं । तिविहेण फासयंतो परिहारियसंजयो स खलु ॥ ३ ॥ लोभाणुं वेदेंतो जो खलु उपसामओ व खवओ वा । सो सुहुमसंपराओ अहखाया ऊणओ किंचि ॥४॥ वसंते खीणम्मि व जो खलु कम्मम्मि मोहणिज्जम्मि |
छउमत्थो व जिणो वा अहखाओ संजओ स खलु ॥ ५ ॥ [ दारं १ ] |
सामायिक-चारित्र को अंगीकार करने के पश्चात् चातुर्याम - ( चार महाव्रत - ) रूप अनुत्तर (प्रधान) धर्म का जो मन, वचन और काया से त्रिविध (तीन करण से) पालन करता है, वह 'सामायिक- संयत' कहलाता है ॥ १ ॥
८.
९.
१०.
[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
११.
प्राचीन (पूर्व) पर्याय को छेद करके जो अपनी आत्मा को पंचयाम - (पंचमहाव्रत - ) रूप धर्म में स्थापित करता है, वह 'छेदोपस्थापनीय - संयत' कहलाता है ॥ २ ॥
जो पंचमहाव्रतरूप अनुत्तर धर्म को मन, वचन और काया से त्रिविध पालन करता हुआ (अमुक) आत्म-विशुद्धि (कारक तपश्चर्या) धारण करता है वह परिहारविशुद्धिक- संयत कहलाता है ॥ ३ ॥
जो सूक्ष्म लोभ का वेदन करता हुआ ( चारित्रमोहनीय कर्म का ) उपशमक (उपशमकर्त्ता ) होता है, अथवा क्षपक (क्षयकर्त्ता ) होता है, वह सूक्ष्मसम्पराय - संयत होता है । यह यथाख्यात - संयत से कुछ हीन होता है ॥ ४ ॥
मोहनीय कर्म के उपशान्त या क्षीण हो जाने पर जो छद्मस्थ या जिन होता है, वह यथाख्यात-संयत कहलाता है ॥ ५ ॥ [ प्रथम द्वार ]
विवेचन — पंचविध संयत: स्वरूप, प्रकार और विश्लेषण - शास्त्र में चारित्र के सामायिक आदि ५ भेद बताये हैं । अतः जो सामायिक आदि चारित्रों के पालक हैं, वे सामायिक आदि 'संयत' कहलाते हैं । सामायिक का प्रस्तुत में अर्थ है – सामायिक नामक चारित्र - विशेष, उससे युक्त अथवा वह जिसमें प्रधान रूप से है, वह संयमी पुरुष सामायिकसंयंत कहलाता है। सामायिकचारित्री दो प्रकार के होते हैं— इत्वरिक