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________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक-७] [४४९ और यावत्कथिक। इत्वर का अर्थ है—अल्पकाल। चारित्र (दीक्षा) ग्रहण करने के बाद भविष्य में उक्त (नव) दीक्षित साधु में जब तक महाव्रतों का आरोपण नहीं होता तब तक. तथा छेदोपस्थापनीय संयतत्त्व का व्यवहार किया जाता है, अर्थात् उसे इत्वरित सामायिक-संयत कहते हैं। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन (ताथ) में उक्त नवदीक्षित साधु के इत्वरकालिक सामायिक समझनी चाहिये । परम्परा से यह जघन्य ७दिन, मध्यम ४ मास और उत्कृष्ट ६ मास की (कच्ची दीक्षा) होती है। यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक सामायिक कहलाती है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् से अतिरिक्त मध्य के २२ तीर्थंकर एवं महाविदेह क्षेत्र के २० विहरमान तीर्थंकरों के तीर्थ में सामायिक चारित्र लेने के पश्चात् पुनः दूसरा व्यपदेश नहीं होता। अतएव वे यावत्कथिक सामायिक-संयत ही कहलाते हैं। जिस चारित्र में पूर्वपर्याय का छेद और महाव्रतों का उपस्थापन (आरोपण) होता है, उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं। यह चारित्र भारतक्षेत्र और ऐरवतक्षेत्र के प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होता। इसके दो भेद हैं—सातिचार और निरतिचार। इत्वर-सामायिक वाले साध के तथा एक तीर्थ से दसरे तीर्थ में जाने वाले साधु के जो महाव्रतों का आरोहण होता है, वह निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। _ . मूलगुणों का घात करने वाले साधु का पुनः महाव्रतों में आरोपण होता है, वह सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। जिस चारित्र में परिहार (तप-विशेष) से कर्मनिर्जरारूप शुद्धि होती है, 'परिहारविशुद्धिचारित्र' कहते हैं। इसे अंगीकार करने वाले साधुगण 'परिहारविशुद्धिक-संयत', कहलाते हैं। नौ साधुओं का गण गुरु-आज्ञा से आत्मशुद्धि के हेतु परिहारविशुद्धि-चारित्र अंगीकार करता है। उन नौ साधुओं में से चार साधु ६ मास तक तप करते हैं, चार साधु सबकी वैयावृत्य करते हैं और एक साधु व्याख्यान वांचता है। दूसरे छह मास में ४ वैयावच्ची मुनि तप करते हैं और तप करने वाले वैयावृत्य करते हैं तथा एक साधु व्याख्यान वांचता है। तीसरे छह मास में उक्त व्याख्यानी साधु तप करता है, एक व्याख्यान वांचता है और सात साधु सबकी वैयावृत्य करते हैं । तपश्चर्या में ग्रीष्मऋतु में एकान्तर उपवास, शीतऋतु में छ?-छट्ठ (बेले-बेले) उपवास और चौमासे में अट्ठम-अट्ठम (तेले-तेले) उपवास करते हैं। इस प्रकार १८ मास तप करके जिनकल्पी बन जाते हैं अथवा पुनः गुरुकुलवास स्वीकार करते हैं। जिस चारित्र में सूक्ष्मसम्पराय (संज्वलन लोभ का सूक्ष्म अंश) ही शेष रहता है, उसे सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहते हैं। इसके संक्लिश्यमानक और विशुद्ध्यमानक, ये दो भेद हैं। उपशमश्रेणी से गिरते हुए मुनि के परिणाम संक्लेशसहित होते हैं, इसलिये उसका चारित्र संक्लिश्यमान-सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहलाता है। क्षपकश्रेणी पर आरूढ होने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्ध रहने से उसका चारित्र विशुद्ध्यमान-सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहलाता है। ऐसे चारित्र से युक्त मुनि को 'सूक्ष्मसम्परायसंयत' कहते हैं। कषाय का सर्वथा उदय न होने से अतिचार-रहित पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र यथाख्यातचारित्र १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९०९, (ख) भगवती (हिन्दी-विवेचन) भा. ७, पृ. ३४३६ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९१०
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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