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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___[२३५ उ.] गौतम ! सबसे थोड़े निर्ग्रन्थ हैं, उनसे पुलाक संख्यात-गुणे हैं, उनसे स्नातक संख्यात-गुणे हैं, उनसे बकुश संख्यात-गुणे हैं, उनसे प्रतिसेवनाकुशील संख्यात-गुणे हैं और उनसे कषायकुशील संख्यातगुणे हैं। [छत्तीसवाँ द्वार]
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन—अल्पबहुत्वं की संगति–निर्ग्रन्थ सबसे अल्पसंख्यक हैं क्योंकि उनकी उत्कृष्ट संख्या शत-पृथक्त्व है। उनसे पुलाक और स्नातक क्रमशः उत्तरोत्तर संख्यातगुण हैं, क्योंकि इन दोनों की उत्कृष्ट संख्या क्रमशः सहस्रपृथक्त्व और कोटिपृथक्त्व है। उनसे बकुश और प्रतिसेवनाकुशील दोनों क्रमशः उत्तरोत्तर संख्यातगुण हैं क्योंकि इन दोनों की उत्कृष्ट संख्या कोटिशतपृथक्त्व है और प्रतिसेवनाकुशील से कषायकुशील की संख्या संख्यातगुणी है, क्योंकि कषायकुशील की उत्कृष्ट संख्या कोटिसहस्रपृथक्त्व है।
शंका समाधान—पूर्वसूत्रों में बकुश और प्रतिसेवनाकुशील, इन दोनों का परिमाण एक-साकोटिशतपृथक्त्वरूप कहा है, जबकि यहाँ अल्पबहुत्व में बकुश से प्रतिसेवनाकुशील को संख्यातगुणा अधिक बताया है, ऐसी स्थिति में यहाँ मूलपाठ के साथ कैसे संगति होगी? इस शंका का समाधान यह है कि बकुश का परिमाण जो कोटिशतपृथक्त्व कहा है, वह तीन कोटिशतरूप जानना चाहिए और प्रतिसेवनाकुशील का जो कोटिशतपृथक्त्व परिमाण बताया है, वह चार-छह कोटिरूप जानना चाहिए। इस प्रकार पूर्वोक्त अल्पबहुत्व में किसी प्रकार का परस्पर विरोध नहीं आता। ॥पच्चीसवाँ शतक : छठा उद्देशक सम्पूर्ण॥
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१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९०९