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________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक-६] [ ४४५ [२३३ उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट एक सौ बासठ होते हैं। उनमें से क्षपकश्रेणी वाले १०८ और उपशमश्रेणी वाले ५४, यों दोनों मिलाकर १६२ होते हैं पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा निर्ग्रन्थ कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं। २३४. सिणाया णं० पुच्छा। गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नत्थि। जदि अत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं अट्ठसयं। पुवपडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोडिपुहत्तं, उक्कोसेणं वि कोडिपुहत्तं। [दारं ३५] [२३४ प्र.] भगवन् ! स्नातक एक समय में कितने होते हैं ? [२३४ उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वे कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट एक सौ आठ होते हैं । पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा स्नातक जघन्य और उत्कृष्ट कोटिपृथक्त्व होते हैं। [ पैंतीसवाँ द्वार] .विवेचन–शंका-समाधान—सुनते हैं, सर्व संयतों (साधुओं) का परिमाण (संख्या) कोटिसहस्रपृथक्त्व है और यहाँ तो शास्त्रकार ने केवल कषायकुशील मुनियों का ही इतना (कोटिसहस्र-पृथक्त्व) परिमाण बताया है, उनमें पुलाक आदि की संख्या को मिलाने से तो कोटि-सहस्र-पृथक्त्व से अधिक संख्या हो जाएगी तो क्या वह पूर्वोक्त परिमाण से विरोध नहीं? इसका समाधान यह है कि कषायकुशील संयतों का जो कोटि-सहस्र-पृथक्त्व परिमाण बताया है, वह दो, तीन कोटि सहस्र-पृथकत्वरूप जानना चाहिए। उसमें पुलाक, बकुशादि की संख्या को मिला देने पर भी समस्त संयतों की जो संख्या बतायी है उससे अधिक नहीं होगी। अर्थात् सर्व संयतों का परिमाण भी कोटि-सहस्र-पृथक्त्व ही होगा।' छत्तीसवाँ अल्पबहुत्वद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में अल्पबहुत्व प्ररूपण २३५. एएसि णं भंते ! पुलाग-बउस-पडिसेवणाकुसील-कसायकुसील-नियंठ-सिणायाणं कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा नियंठा, पुलागा संखेजगुणा, सिणाया संखेजगुणा, बउसा संखेजगुणा, पडिसेवणाकुसीला संखेनगुणा, कसायकुसीला संखेजगुणा। [दारं ३६] सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। ॥पंचवीसइमे सए : छट्ठो उद्देसओ समत्तो॥ [२३५ प्र.] भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक इनमें से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९०८ (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७, पृ. ३४३१
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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