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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-६]
[४४१ २१७. एसं पडिसेवणाकुसीले वि। [२१७] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में समझना चाहिए। २१८. कसायकुसीलस्स० पुच्छा। गोयमा ! छ समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा—वेयणासमुग्घाए जाव आहारगसमुग्घाए। [२१८ प्र.] भगवन् ! कषायकुशील के कितने समुद्घात कहे हैं ? [२१८ उ.] गौतम ! उसमें छह समुद्घात कहे हैं, यथा-वेदनासमुद्घात से लेकर आहारकसमुद्घात
तक।
२१९. नियंठस्स णं० पुच्छा। गोयमा ! नत्थि एक्को वि। [२१९ प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ के कितने समुद्घात कहे हैं ? [२१९ उ.] गौतम ! उसमें एक भी समुद्घात नहीं होता। २२०. सिणायस्स० पुच्छा। गोयमा ! एगे केवलिसमुग्घाते पन्नत्ते। [दारं ३१]। [२२० प्र.] भगवन् ! स्नातक के कितने समुद्घात कहे हैं ? [२०० उ.] गौतम ! उसमें केवल एक केवलिसमुद्घात होता है। [इकतीसवाँ द्वार]
विवेचन—किसमें कितने समुद्घात और क्यों ? –सात समुद्घातों में से पुलाक में तीन समुद्घात होते हैं। मुनियों में संज्वलनकषाय के उदय से कषायसमुद्घात पाया जाता है। इस कारण पुलाक में वेदनासमुद्घात के बाद कषायसमुद्घात भी सम्भव है। यद्यपि पुलाक-अवस्था में मरण नहीं होता, तथापि पुलाक में मारणान्तिकसमुद्घात होता है; क्योंकि मारणान्तिकसमुद्घात से निवृत्त होने पर कषायकुशीलत्वादि परिणाम के सद्भाव में उसका मरण होता है। अत: पुलाक में मारणान्तिकसमुद्घात का सद्भाव कहा गया है। निर्ग्रन्थ में एक भी समुद्घात नहीं होता; क्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा है। पहले समुद्घात किया हुआ हो तो वह निर्ग्रन्थपने में आकर काल कर सकता है। स्नातक केवली होने से उनमें केवलिसमुद्घात ही पाया जाता है।' बत्तीसवाँ क्षेत्रद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में अवगाहनाक्षेत्र-प्ररूपण
२२१. पुलाए णं भंते ! लोगस्स किं संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होज्जा, संखेजेसु भागेसु होजा, असंखेजेसु भागेसु होज्जा, सव्वलोए होज्जा ?
गोयमा ! नो संखेजइभागे होजा, असंखेज्जइभागे होजा, नो संखेजेसु भागेसु होजा, नो असंखेजेसु भागेसु होजा, नो सव्वलोए होजा। १. (क) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. ७, पृ. ३४२५ ' (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९०७