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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा। [२१३ प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थों का अन्तर कितने काल का होता है ? . [२१३ उ.] गौतम ! उनका अन्तर जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट छह मास का होता है। २१४. सिणायाणं जहा बउसाणं। [ दारं ३०]। [२१४] स्नातकों के अन्तर का कथन बकुशों के कथन के समान जानना चाहिए। [तीसवाँ द्वार]
विवेचन–अन्तर : काल और क्षेत्र की अपेक्षा से—अन्तर का स्वरूप यह है कि पुलाक आदि पुनः कितने काल पश्चात् पुनः पुलाकत्व को प्राप्त होता है/होते हैं ? पुलाक, पुलाकत्व को छोड़ कर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त में पुन: पुलाक हो सकता है और उत्कृष्टत: अनन्तकाल में पुलाकत्व को प्राप्त होता है। वह कालतः अनन्तकाल अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीरूप अन्तर समझना चाहिए तथा क्षेत्रतः देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्तन का अन्तर जानना चाहिए।
क्षेत्रतः पुदगलपरावर्तन का स्वरूप-कोई जीव आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर मृत्यु को प्राप्त हो। इस प्रकार मरण से जितने काल में समस्त लोक को व्याप्त करे, उतना काल क्षेत्र-पुद्गल-परावर्तन' कहलाता है। यहाँ पुलाक आदि का अन्तर देशोन अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन काल बतलाया है। ... ___बकुश से लेकर कषायकुशील तक एवं स्नातक का अन्तर नहीं होता, क्योंकि इनका पतन नहीं होता, इसलिए इनका अन्तर नहीं पड़ता।' इकतीसवाँ समुद्घातद्वार : समुद्घातों की प्ररूपणा
२१५. पुलागस्स णं भंते ! कति समुग्घाया पन्नत्ता ?
गोयमा ! तिन्नि समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहा—वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए।
[१२५ प्र.] भगवन् ! पुलाक के कितने समुद्घात कहे हैं ?
[१२५ उ.] गौतम ! उसके तीन समुद्घात कहे हैं, यथा-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात।
२१६. बउसस्स णं भंते ! ० पुच्छा। गोयमा ! पंच समुग्धाता पन्नत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए जाव तेयासमुग्घाए। [२१६ प्र.] भगवन् ! बकुश के कितने समुद्घात कहे हैं ?
[२१६ उ.] गौतम ! उसके पांच समुद्घात कहे हैं, यथा-वेदनासमुद्घात से लेकर तैजससमुद्घात तक। .
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भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९०६