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________________ ४४२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [२२१ प्र.] भगवन् ! पुलाक लोक के संख्यातवें भाग में होते हैं, असंख्यातवें भाग में होते हैं, संख्यातभागों में होते हैं, असंख्यातभागों में होते हैं या सम्पूर्ण लोक में होते हैं ? । [२२१ उ.] गौतम ! वह लोक के संख्यातवें भाग में नहीं होते, किन्तु असंख्यातवें भाग में होते हैं, संख्यातभागों में असंख्यातभागों में या सम्पूर्ण लोक में नहीं होते हैं। २२२. एवं जाव नियंठे। [२२२] इसी प्रकार निर्ग्रन्थ तक समझ लेना चाहिए। २२३. सिणाए णं भंते ! ० पुच्छा। गोयमा ! णो संखेजइभागे होज्जा, असंखेजइभागे होजा, नो संखेजेसु भागेसु होजा असंखेजेसु भागेसु होज्जा, सव्वलोए वा होज्जा। [ दारं ३२] [२२३ प्र.] भगवन् ! स्नातक लोक के संख्यातवें भाग में होता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। [२२३ उ.] गौतम ! वह लोक के संख्यातवें भाग में और संख्यातभागों में नहीं होता, किन्तु असंख्यातवें भाग में, असंख्यात भागों में या सर्वलोक में होता है। [बत्तीसवाँ द्वार] विवेचन क्षेत्रद्वार का अर्थ और क्षेत्रावगाहन कितना और क्यों ?–क्षेत्रद्वार में क्षेत्र का अर्थ यहाँ अवगाहना-क्षेत्र है। प्रश्न का आशय यह है कि पुलाक आदि का शरीर लोक के कितने भाग (प्रदेश) को अवगाहित करता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि पुलाक से लेकर निर्ग्रन्थ तक का शरीर लोक के असंख्यातवें भाग को अवगाहित करता है। स्नातक केवलिसमुद्घात-अवस्था में जब शरीरस्थ होता है या दण्ड-कपाटकरण-अवस्था में होता है, तब लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है। क्योंकि केवली भगवान् का शरीर इतने क्षेत्र-परिमाण ही होता है । मन्थानक-काल में केवली भगवान् के प्रदेशों से लोक का अधिकांश भाग व्याप्त हो जाता है और थोड़ा-सा भाग अव्याप्त रहता है। अत: वह उस समय लोक के असंख्यात-भागों में रहता है। जब वह समग्रलोक को व्याप्त कर लेता है, तब सम्पूर्ण लोक में होता है।' तेतीसवाँ स्पर्शनाद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में क्षेत्रस्पर्शना-प्ररूपण २२४. पुलाए णं भंते ! लोगस्स किं संखेजतिभागं फुसइ, असंखेजतिभागं फुसइ० ? एवं जहा ओगाहणा भणिया तहा फुसणा वि भाणियव्वा जा सिणाये। [ दारं ३३] [२२४ प्र.] भगवन् ! पुलाक लोक के संख्यातवें भाग को स्पर्श करता है या असंख्यातवें भाग को? इत्यादि (क्षेत्रावगाहनावत्) प्रश्न। [२२४ उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार अवगाहना का कथन किया है, उसी प्रकार स्पर्शना के विषय में भी यावत् स्नातक तक जानना चाहिए। [तेतीसवाँ द्वार] विवेचन क्षेत्रावगाहनाद्वार और क्षेत्र-स्पर्शनाद्वार में अन्तर—(क्षेत्र) स्पर्शद्वार में कहा गया है १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९०७
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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