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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! जहन्नेणं दोण्णि, उक्कोसेणं सत्त। [१९२ प्र.] भगवन् ! पुलाक के नाना-भव-ग्रहण-सम्बन्धी आकर्ष कितने होते हैं ? [१९२ उ.] गौतम ! जघन्य दो और उत्कृष्ट सात आकर्ष होते हैं। १९३. बउसस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं सहस्ससो। [१९३ प्र.] भगवन् ! बकुश के अनेक-भव-ग्रहण-सम्बन्धी आकर्ष कितने होते हैं ? [१९३ उ.] गौतम ! जघन्य दो और उत्कृष्ट सहस्रों (सहस्रपृथक्त्व) आकर्ष होते हैं । १९४. एवं जाव कसायकुसीलस्स। [१९४] इसी प्रकार कषायकुशील तक कहना चाहिए। १९५. नियंठस्स णं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं पच। [१९५ प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ के नाना-भव-सम्बन्धी कितने आकर्ष होते हैं ? [१९५ उ.] गौतम ! जघन्य दो और उत्कृष्ट पांच आकर्ष होते हैं। १९६. सिणायस्स० पुच्छा। गोयमा ! नत्थि एक्को वि।[दारं २८] [ १९६ प्र.] भगवन् ! स्नातक के अनेक-भव-सम्बन्धी आकर्ष कितने होते हैं ? [१९६ उ.] गौतम ! एक भी आकर्ष नहीं होता। [अट्ठाईसवाँ द्वार]
विवेचन-एकभवीय और अनेकभवीय आकर्ष-आकर्ष यहाँ पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ है—चारित्र की प्राप्ति । प्रश्नों का आशय यह है कि पुलाकादि के एक भव या अनेक भवों में कितने आकर्ष होते हैं, अर्थात्-एक भव या अनेक भवों में पुलाक आदि संयम (चारित्र) कितनी बार आ सकता है ?
पुलाक के जघन्य एक, उत्कृष्ट तीन आकर्ष कहे हैं, अर्थात् एक भव में पुलाकचारित्र तीन बार आ सकता है। बकुश के जघन्य एक और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व आकर्ष होते हैं । निर्ग्रन्थ के एक भव में जघन्य एक आकर्ष और दो बार उपशमश्रेणी करने से उत्कृष्ट दो आकर्ष होते हैं।
पुलाक के एक भव में एक और दूसरे भव में पुनः एक, इस प्रकार अनेक भवों में जघन्य दो आकर्ष होते हैं और उत्कृष्ट सात आकर्ष होते हैं। इनमें से एक भव में उत्कृष्ट तीन आकर्ष होते हैं। प्रथम भव में एक आकर्ष और दूसरे दो भवों में तीन-तीन आकर्ष होते हैं । इत्यादि विकल्प से सात आकर्ष होते हैं। बकुशपन के उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। इनमें से प्रत्येक भव में उत्कृष्ट शतपृथक्त्व आकर्ष हो सकते हैं। जबकि आठ भवों में से प्रत्येक भव में उत्कृष्ट नौ सौ-नौ सौ आकर्ष हों तो उनको आठगुणा करने पर ७२०० आकर्ष होते हैं। इस प्रकार बकुश के अनेकभव की अपेक्षा सहस्र-पृथक्त्व आकर्ष हो सकते हैं।