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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-६]
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कर सकता है । बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील के लिये जघन्य एक भव और उत्कृष्ट आठ भव कहे हैं, इसका आशय यह है कि कोई साधक एक भव में बकुशत्व, प्रतिसेवनाकुशीलत्व या कषायकुशीलत्व को प्राप्त करके सिद्ध होता है कि कोई साधक एक भव में बकुशादित्व प्राप्त करके भवान्तर में बकुशादित्व को प्राप्त किये विना ही सिद्ध होता है । अत: बकुश आदि के लिए जघन्य एक भव और उत्कृष्ट आठ भव कहे हैं, क्योंकि उत्कृष्टत: आठ भवों तक चारित्र की प्राप्ति होती है। इनमें से कोई साधक तो आठ भव बकुशपन और उनमें अन्तिम भव सकषायत्वादियुक्त बकुशपन से पूरा करता है और कोई प्रत्येक भव प्रतिसेवनाकुशीलत्वादियुक्त बकुशपन से पूरा करता है और फिर उसी भव में मोक्ष चला जाता है। अट्ठाईसवाँ आकर्षद्वार : एकभव-नानाभवग्रहणीय आकर्ष-प्ररूपणा
१८७. पुलागस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवतिया आगरिसा पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं तिण्णि। [१८७ प्र.] भगवन् ! पुलाक के एकभव-ग्रहण-सम्बन्धी आकर्ष (चारित्र-प्राप्ति) कितने कहे हैं ? [१८७ उ.] गौतम ! उसके जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन आकर्ष होते हैं। १८८. बउसस्स णं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं सयग्गसो। - [१८८ प्र.] भगवन् ! बकुश के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? . [१८८ उ.] गौतम ! जघन्य एक और सैकड़ों (शतक-पृथक्त्व) आकर्ष होते हैं। १८९. एवं पडिसेवणाकुसीले वि, कसायकुसीले वि। [१८९] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील के विषय में भी जानना चाहिए। १९०. णियंठस्स णं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं दोन्नि। [१९० प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? [१९० उ.] गौतम ! जघन्य एक और उत्कष्ट दो आकर्ष होते हैं। ' १९१. सिणायस्स णं० पुच्छा। गोयमा ! एक्को। [१९१ प्र.] भगवन् ! स्नातक के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? . [१९१ उ.] गौतम ! उसके एक ही आकर्ष होता है।
१९२. पुलागस्स णं भंते ! नाणाभवग्गहणिया केवतिया आगरिसा पन्नत्ता ? १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९०५ -