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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[१८० उ.] गौतम ! वह आहारक भी होता है और अनाहारक भी होता है। [छव्वीसवाँ द्वार]
विवेचन आहारक कौन, अनाहारक कौन? —पुलाक से लेकर निर्ग्रन्थ तक मुनियों के विग्रहगति आदि अनाहारकपन के कारण का अभाव होने से वे आहारक ही होते हैं । स्नातक केवलिसमुद्घात के तृतीय, चतुर्थ और पंचम समय में तथा अयोगी-अवस्था में अनाहारक होते हैं, शेष समय में आहारक होते हैं।' सत्ताईसवां भवद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में भवग्रहण-प्ररूपणा
१८१. पुलाए णं भंते ! कति भवग्गहणाइं होजा? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं उक्कोसेणं तिन्नि। [१८१ प्र.] भगवन् ! पुलाक कितने भव ग्रहण करता है ? [१८१ उ.] गौतम ! वह जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन भव ग्रहण करता है। १८२. बउसे० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं उक्कोसेणं अट्ठ। [१८२ प्र.] भगवन् ! बकुश कितने भव ग्रहण करता है ? [१८२ उ.] गौतम ! वह जघन्य एक और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करता है। १८३. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। [१८३] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील का कथन है। १८४. एवं कसायकुसीले वि। [१८४] कषायकुशील को वक्तव्यता भी इसी प्रकार है। १८५. नियंठे जहा पुलाए। [१८५] निर्ग्रन्थ का कथन पुलाक के समान है। १८६. सिणाए० पुच्छा। गोयमा ! एक्कं । [दारं २७]। [१८६ प्र.] भगवन् ! स्नातक कितने भव ग्रहण करता है ? [१८६ उ.] गौतम ! वह एक भव ग्रहण करता है। [सत्ताईसवाँ द्वार]
विवेचन-कौन कितने भव ग्रहण करता है ? –पुलाक जघन्यतः एक भव में पुलाक होकर कषायकुशील आदि किसी भी संयतत्व को एक बार या अनेक बार उसी भव में या अन्य भव में करके सिद्ध होता है और उत्कृष्ट देवादिभव में अन्तरित (बीच में देवादि भव) करते हुए तीसरे भव में पुलाकत्व को प्राप्त
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ९०५