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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[१५-१ प्र.] भगवन् ! स्नातक कितने काल तक वर्द्धमानपरिणामी होता है ? [१५-१ उ.] गौतम ! वह जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (वर्द्धमानपरिणामी रहता है ।)
[ २ ] केवतियं कालं अवट्ठियपरिणामे होज्जा ?
गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी । [ दारं २० ]
[१५०-२ प्र.] भगवन् ! स्नातक कितने काल तक अवस्थितपरिणामी रहता है ?
[१५०-२ उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटिवर्ष तक अवस्थितपरिणाम रहता है। [ वीसवाँ द्वार ]
विवेचन — परिणाम : प्रकार, स्वरूप और कालावधि — चारित्रसम्बन्धी भावों को यहाँ 'परिणाम' कहा गया है। वे तीन प्रकार के माने जाते हैं - (१) वर्द्धमानपरिणाम, (२) हीयमानपरिणाम और (३) अवस्थितपरिणाम । वर्द्धमानपरिणाम का अर्थ है संयमशुद्धि की उत्कर्षता (वृद्धि) होना । हीयमानपरिणाम का . आशय है - संयमशुद्धि की अपकर्षता (हीनता) होना और अवस्थितपरिणाम उसे कहते हैं, जिसमें, संयमशुद्धि स्थिर रहे, उसमें न्यूनाधिकता (घट-बढ़ ) न हो ।
पुलाक से लेकर कषायकुशील तक तीनों ही प्रकार के परिणाम पाए जाते हैं। निर्ग्रन्थ और स्नातक, ये दोनों हीयमानपरिणाम वाले नहीं होते । निर्ग्रन्थ के परिणामों में हीनता आती है तो वह 'कषायकुशील'. कहलाता है। स्नातक के परिणामों में हीनता होने का कारण ही नहीं है, क्योंकि वहाँ रोग, द्वेष, मोह और घातिकर्म का सर्वथा क्षय हो जाता है।
पुलाक के परिणाम वृद्धिंगत हो रहे हों, तब यदि वे कषाय से बाधित हो जाएँ तो वह एकादि समय तक वर्द्धमानपरिणाम का अनुभव करता है, इसलिए उसका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है। इसी प्रकार बकुश, प्रतिसेवनाकुशील एवं कषायकुशील के विषय में समझना चाहिए। ब्रुकुशादि के जघन्य एक समय वर्द्धमानपरिणाम मरण की अपेक्षा भी घटित हो सकते हैं, लेकिन पुलाकपने में मरण नहीं होता। मरण के समय पुलाक, कषायकुशीलादि रूप में परिणत हो जाता है । पूर्वसूत्र में पुलाक के मर्रण का कथन किया, वह भूतभाव की अपेक्षा से समझना चाहिए ।
निर्ग्रन्थ जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वर्द्धमानपरिणाम वाला होता है, जब केवलज्ञान उत्पन्न होता है तब उसके परिणामान्तर हो जाते हैं । निर्ग्रन्थ के अवस्थितपरिणाम जघन्य एक समय, मरण की अपेक्षा घटित हो सकते हैं।
स्नातक जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वर्द्धमानपरिणाम वाला होता है, क्योंकि शैलेशी-अवस्था में वर्द्धमानपरिणाम अन्तर्मुहूर्त तक होते हैं। स्नातक के अवस्थितपरिणाम का काल भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता हैं, क्योंकि केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद वह अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित परिणाम वाला होकर फिर शैलेषीअवस्था को स्वीकार करता है; इस अपेक्षा से यह काल घटित हो सकता है । अवस्थितपरिणाम का उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटिवर्ष इसलिए होता है कि पूर्वकोटिवर्ष की आयुवाले पुरुष को जन्म से जघन्य नौ वर्ष बीत जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न हो तो नौ वर्ष न्यून पूर्वकोटिवर्ष पर्यन्त अवस्थितपरिणाम वाला होकर शैलेशी
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