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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र १००. नियंठस्स जहा बउसस्स। [१००] बकुश के समान निर्ग्रन्थ के विषय में भी कहना चाहिए। १०१. एवं सिणायस्स वि। [१०१] स्नातक का कथन भी बकुश के समान है। १०२. बउसे.णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्भहिए ? गोयमा ! नो हीणे, नो तुल्ले, अब्भहिए; अणंतगुणमब्भहिए।
[१०२ प्र.] भगवन् ! बकुश, पुलाक के परस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों की अपेक्षा हीन है, तुल्य है या अधिक है ?
[१०२ उ.] गौतम ! वह हीन भी नहीं और तुल्य भी नहीं; किन्तु अधिक है; अनन्तगुण और अधिक है। १०३. बउसे णं भंते ! बउसस्स सट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं० पुच्छा। गोयमा ! सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए। जदि हीणे छट्ठाणवडिए।
[१०३ प्र.] भगवन् ! बकुश, दूसरे बकुश के स्वस्थान-सन्निकर्ष से (सजातीय-पर्यायों से) चारित्रपर्यायों (की अपेक्षा) से हीन है, तुल्य है या अधिक है ?
[१०३ उ.] गौतम ! वह कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। यदि हीन हो तो (यावत्) षट्स्थान-पतित होता है।
१०४. बउसे णं भंते ! पडिसेवणाकुसीलस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे० ? छट्ठाणवडिए।
[१०४ प्र.] भगवन् ! बकुश, प्रतिसेवनाकुशील के परस्थान-सन्निकर्ष से, चारित्र-पर्यायों से हीन है, तुल्य है या अधिक है ?
[१०४ उ.] गौतम ! वह षट्स्थानपतित होता है। १०५. एवं कसायकुसीलस्स वि। [१०५] इसी प्रकार कषायकुशील की अपेक्षा से भी जान लेना चाहिए। १०६. बउसे णं भंते ! नियंठस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं० पुच्छा। गोयमा ! हीणे नो तुल्ले, नो अब्भहिए; अणंतगुणहीणे।
[१०६ प्र.] भगवन् ! बकुश निर्ग्रन्थ के परस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन, तुल्य या अधिक होते हैं ?
[१०६ उ.] गौतम ! वे हीन होते हैं, न तो तुल्य होते हैं और न अधिक होते हैं। अनन्तगुण-हीन होते हैं। १०७. एवं सिणायस्स वि।