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________________ पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक- ६ ] [ ४१३ ९५. एवं जाव सिणायस्स । [९५] इसी प्रकार (बकुश से लेकर) स्नातक तक कहना चाहिए । विवेचन — चारित्र - पर्याय : क्या और कितने ? - चारित्र अर्थात् सर्वविरतिरूप परिणाम, उसके पर्यव या पर्याय अर्थात् तरतमताजनित भेद या अंश को चारित्र - पर्याय कहते हैं । बुद्धिकृत या विषयकृत अविभागपरिच्छेद रूप (जिसके फिर विभाग न हो सकें) होते हैं। ऐसे चारित्र - पर्याय अनन्त होते हैं । पुलाक से स्नातक तक के चारित्र - पर्याय अनन्त होते हैं । पंचविध निर्ग्रन्थों के स्व-पर-स्थान- सन्निकर्ष चारित्रपर्यायों से हीनत्वादि प्ररूपणा ९६. पुलाए णं भंते ! पुलागस्स सट्टाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्भहिए ? गोयमा ! सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए। जदि हीणे अणंतभागहीणे वा असंखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा, अनंतगुणही वा। अह अब्भहिए अणंतभागमब्भहिए वा, असंखेज्जइभागमब्भहिए वा, संखेज्जइभागमब्भहिए वा, संखेज्ज़गुणमब्भहिए वा, असंखेज्जगुणमब्भहिए वा, अणंतगुणमब्भहिए वा । [९६ प्र.] भगवन् ! एक पुलाक, दूसरे पुलाक के स्वस्थान- सन्निकर्ष से चारित्र - पर्यायों से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? [९६ उ.] गौतम ! वह कदाचित् हीन होता है, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। यदि हीन हो तो अनन्तभागहीन, असंख्यात भागहीन तथा संख्यात भागहीन होता है एवं संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन और अनन्तगुणहीन होता है । यदि अधिक हो तो अनन्तभाग- अधिक असंख्यात भागअधिक और संख्यातभाग अधिक होता है; तथैव संख्यातगुण- अधिक, असंख्यातगुण- अधिक और अनन्तगुणअधिक होता है। ९७. पुलाए णं भंते ! बउसस्स परद्वाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्भहिए ? गोमा ! हीणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए; अनंतगुणहीणे । [९७ प्र.] भगवन् ! पुलाक अपने चारित्र - पर्यायों से, बकुश के परस्थान - सन्निकर्ष (विजातीय चारित्रपर्यायों के परस्पर संयोजन) की अपेक्षा हीन हैं, तुल्य है या अधिक हैं ? [९७ उ.] गौतम ! वे हीन होते हैं, तुल्य या अधिक नहीं होते । अनन्तगुणहीन होते हैं। ९८. एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि । [९८] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में कहना चाहिए । ९९. कसायकुसीलेण समं छट्टाणपडिए जहेव सट्ठाणे । [९९] कषायकुशील से पुलाक के स्वस्थान समान षट्स्थानपतित कहना चाहिए । ९. भगवत. अ. वृत्ति, पत्र ९००
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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