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तत्पर रहना चाहिये तथा दूसरी शिक्षा है रोगी की सेवा करने के लिए अग्लान भाव से सदा तत्पर रहना चाहिये।
स्थानांग और भगवती में वैयावृत्य के दस प्रकार बताये हैं—१. आचार्य की सेवा, २. उपाध्याय की सेवा, ३. स्थविर की सेवा, ४. तपस्वी की सेवा, ५. रोगी की सेवा, ६. नवदीक्षित मुनि की सेवा,७. कुल की सेवा (एक आचार्य के शिष्यों का समुदाय—कुल) ८. गण की सेवा, ९. संघ की सेवा, १०. साधर्मिक की सेवा।
सेवा करते समय विवेक की भी आवश्यकता है। सेवा करने वाले को यह ध्यान में रहना चाहिये कि अवसर के अनुसार सेवा की जाए। व्यवहारभाष्य में लिखा है कि आवश्यकता होने पर भोजन देना, पानी देना सोने के लिये बिस्तर आदि देना, गुरुजनों के वस्त्रादि का प्रतिलेखन कर देना, पाँव पौंछना, रुग्ण हो तो दवा आदि का प्रबन्ध करना, रास्ते में डगमगा रहे हों तो सहारा देना, राजा आदि के क्रुद्ध होने पर आचार्य, संघ आदि की रक्षा करना, चोर आदि से बचना, यदि किसी ने दोष का सेवन किया है तो उसको स्नेहपूर्वक समझा कर उसकी विशुद्धि करवाना, रुग्ण हो तो उसकी दवा-पथ्यादि का ध्यान रखना, रोगी के प्रति घृणा या ग्लानि न कर अग्लान भाव से सेवा करना।
आभ्यन्तर तप का चतुर्थ प्रकार स्वाध्याय है। 'सुष्ठआ मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः। सत् शास्त्रों का मर्यादापूर्वक और विधिसहित अध्ययन करना स्वाध्याय है। दूसरी व्युत्पत्ति है—स्वस्य स्वस्मिन् अध्यायःअध्ययनम् स्वाध्यायः। अपना अपने ही भीतर अध्ययन, आत्मचिन्तन, मनन स्वाध्याय है। जैसे शरीर के विकास के लिए व्यायाम आवश्यक है, वैसे ही बुद्धि के विकास के लिए स्वाध्याय है। स्वाध्याय से नया विचार
और नया चिन्तन उद्बुद्ध होता है। गलत आहार स्वास्थ्य के लिए अहितकर है, वैसे ही विकारोत्तेजक पुस्तकों का वाचन भी मन को दूषित करता है। अध्ययन वही उपयोगी है जो सद्विचारों को उबुद्ध करे। इसीलिये भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन में स्पष्ट शब्दों में कहा कि स्वाध्याय समस्त दुःखों से मुक्ति दिलाता है। अनेक भवों के संचित कर्म स्वाध्याय से क्षीण हो जाते हैं। स्वाध्याय अपने-आप में महान् तप है । तैत्तिरीय आरण्यक में वैदिक ऋषि ने कहा—तपो हि स्वाध्याय:५–स्वाध्याय स्वयं एक तप है। उसकी साधना-आराधना में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। इसलिये तैत्तिरीय उपनिषद् में भी कहा है-स्वाध्यायान् मा प्रमद। स्वाध्याय से बुद्धि निर्मल होती है। फर्श की ज्यों-ज्यों घुटाई होती है, त्यों-त्यों वह चिकना होता है। उसमें प्रतिविम्ब छलकने लगता है, वैसे ही स्वाध्याय से मन निर्मल और पारदर्शी बन जाता है । आगमों के गम्भीर रहस्य उसमें प्रतिविम्बित होने लगते हैं । आचार्य पतञ्जलि ने योगदर्शन में लिखा है कि स्वाध्याय से इष्टदेव का साक्षात्कार होने लगता है।' एक चिन्तक ने लिखा है कि स्वाध्याय से चार बातों की उपलब्धि होती है, स्वाध्याय से जीवन में सद्विचार १. असंगिहीय परिजणस्स संगिण्हणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ,
गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवइ। --स्थानांगसूत्र ८ स्थानांग टीका ५/३।४६५ उत्तराध्ययन २३।१० चन्द्रप्रज्ञप्ति ९१ तैत्तिरीय आरण्यक २।१४ तैत्तिरीय उपनिषद् १११११ स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः। -योगदर्शन २२४४
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