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आते हैं, मन में सत्संस्कार जागृत होते हैं। स्वाध्याय से अतीत के महापुरुषों की दीर्घकालीन साधना के अनुभवों की थाती प्राप्त होती है। स्वाध्याय से मनोरंजन के साथ आनन्द भी प्राप्त होता है। स्वाध्याय से मन एकाग्र और स्थिर होता है। जैसे अग्निस्नान कराने से स्वर्ण मैलमुक्त हो जाता है वैसे ही स्वाध्याय से मन का मैल नष्ट होता है। अत: नियमित स्वाध्याय करना चाहिये।
__भगवतीसूत्र, स्थानांग, औपपातिक प्रभृति आगम साहित्य में स्वाध्याय के पांच प्रकार बताये हैं। वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा तथा इनके भी अवान्तर भेद किये गये हैं। स्वाध्याय से ज्ञान का दिव्य आलोक जगमगाने लगता है।
अन्तरंग तप का पांचवां प्रकार ध्यान है। मन की एकाग्र अवस्था ध्यान है। आचार्य हेमचन्द्र ने अभिधान-चिन्तामणि कोष में लिखा है—अपने विषय में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में लिखा है—चित्त को किसी भी विषय में एकाग्र करना, स्थिर करना, ध्यान है ।'
जिज्ञासा हो सकती है कि मन का किसी भी विषय में स्थिर होना ही यदि ध्यान है तो लोभी व्यक्ति का ध्यान सदा धन कमाने में लगा रहता है, चोर का ध्यान वस्तु को चुराने में लगा रहता है, कामी का ध्यान.वासना की पूर्ति में लगा रहता है, क्या वह भी ध्यान है ? समाधान है कि पापात्मक चिन्तन की एकाग्रता भी ध्यान है। भारत के तत्त्वदर्शी मनीषियों ने ध्यान को दो भागों में विभक्त किया है—एक शुभ ध्यान है और दूसरा अशुभ ध्यान है। शुभ ध्यान मोक्ष का कारण है तो अशुभ ध्यान नरक और तिर्यञ्च का कारण है । अशुभ ध्यान अधोमुखी होता है तो शुभ ध्यान ऊर्ध्वमुखी होता है। अशुभ ध्यान अप्रशस्त है, शुभ ध्यान प्रशस्त है। इसीलिये स्थानांग आदि में ध्यान के चार प्रकार बताये हैं—आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । इन चार प्रकारों में दो प्रकार अशुभ ध्यान के हैं। वे दोनों प्रकार तप की कोटि में नहीं आते। अतः आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने ध्यान की परिभाषा इस प्रकार की है—शुभ और पवित्र आलम्बन पर एकाग्र होना ध्यान है।
मन की अन्तर्मखता. अन्तर्लीनता शभ ध्यान है। मन स्वभावत:चंचल है। वह लम्बे समय तक एक वस्त पर स्थिर नहीं रह सकता। आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि छद्मस्थ का मन अधिक से अधिक अन्तर्महतं तक यानी ४५ मिनट तक एक आलम्बन पर स्थिर रह सकता है, इससे अधिक नहीं। पवित्र विचारों में मन को स्थिर करना धर्मध्यान है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मा का आत्मा के द्वारा आत्मा के विषय में सोचना, चिन्तन करना धर्मध्यान है।
भगवती, स्थानांग आदि में धर्मध्यान के आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय, ये चार प्रकार कहे हैं। धर्मध्यान के आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढ़रुचि-ये चार लक्षण हैं। इसी
भगवती. २५७ स्थानांग.५ औपपातिक. समवसरण, तप अधिकार।
ध्यानं त विपये तस्मिन्नेकप्रत्ययंसंततिः। -अभिधान राजेन्द्र कोप २४८ १. चित्तस्सेगग्गया हवई झाणं। -आवश्यकनियुक्ति १४५६ . शुभैकप्रत्ययो ध्यानम्। -द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका १८॥ ११
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