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________________ जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है कि विनय कई प्रकार से लोग करते हैं। उन्होंने विनय के पांच उद्देश्य बातये हैं १. लोकोपचार—लोकव्यवहार के लिए माता-पिता, अध्यापक आदि का विनय करना। २. अर्थविनय—अर्थ के लोभ से सेठ आदि की सेवा-विनय करना। ३. कामविनय-कामवासना की पूर्ति के लिये स्त्री आदि की प्रशंसा करना। ४. भवविनय—अपराध होने पर न्यायाधीश, कोतवाल आदि का विनय करना। ५. मोक्षविनय-आत्मकल्याण के लिए गुरु आदि का विनय करना। विनय के जो चार उद्देश्य हैं, वे जब तक सीमा के अन्तर्गत हैं तब तक उचित हैं । सीमा का उल्लंघन करने पर वह विनय नहीं चापलूसी है । चापलूसी एक दोष है तो विनय एक सद्गुण है। विनय में सद्गुणों की प्राप्ति और गुणीजनों का सम्मान मुख्य होता है, जबकि चापलूसी में दूसरों को ठगने की भावना प्रमुख रूप से रहती है। चीता शिकार पर जब हमला करता है तो पहले झुकता है पर उसका झुकना विनय नहीं है। उसमें कपट की भावना रही हुई है। उसका झुकना उसके कर्मबन्धन का कारण है। आभ्यन्तर तप का तृतीय प्रकार वैयावृत्य है। वैयावृत्य का अर्थ है-धर्मसाधना में सहयोग करने वाली आहार आदि वस्तुओं से सेवा-शुश्रूषा करना। वैयावृत्य से तीर्थंकरनामकर्म का उपार्जन हो सकता है। तीर्थंकर आध्यात्मिक वैभव की दृष्टि से विश्व के अद्वितीय पुरुष हैं। वे अनन्त बली होते हैं। आत्मा की शक्तियों का पूर्ण विकास उनके जीवन में होता है। देवेन्द्र, नरेन्द्र भी उनके चरणों में नत होते हैं। एक जैनाचार्य ने लिखा है कि एक बार गणधर गौतम ने भगवान महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तत की कि एक साधक आपकी सेवा करता है और एक साधक रोगी, वृद्ध आदि श्रमणों की सेवा करता है, उन दोनों में श्रेष्ठ कोन है? आप किसे धन्यवाद प्रदान करेंगे? भगवान् महावीर ने कहा—'जे गिलाणं पडियरइ से धन्ने' अर्थात् जो रोगी की सेवा करता है, वही वस्तुतः धन्यवाद का पात्र है । गणधर गौतम इस उत्तर को सुनकर आश्यान्वित हो गये। वे सोचने लगे–कहाँ एक ओर अनन्तज्ञानी लोकोत्तम पुरुष भगवान् की सेवा और दूसरी ओर एक सामान्य श्रमण की परिचर्या ! दोनों में जमीन-आसमान की तरह अन्तर है। तथापि भगवान् अपनी भक्ति से भी बढ़कर रुग्ण श्रमण की सेवा को महत्त्व दे रहे हैं। अत: गणधर गौतम ने पुन: जिज्ञासा प्रकट की तो भगवान् महावीर ने कहा मेरे शरीर की सेवा का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है मेरी आज्ञा की आराधना करने का।"आणाराहणं खु जिणाणं'—जिनेश्वरों की आज्ञा का पालन करना ही सबसे बड़ी सेवा है। स्थानांगसूत्र में भगवान् महावीर प्रभु ने आठ शिक्षाएँ प्रदान की हैं। उनमें से दो शिक्षायें सेवा से सम्बन्धित हैं। जो अनाश्रित हैं, असहाय हैं, जिनका कोई आधार नहीं है, उनको सहायता-सहयोग एवं आश्रय देने को सदा १. विशेषावश्यकभाष्य ३१० उत्तराध्ययन २९/३ [५०]
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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