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पच्चीसवां शतक : उद्देशक-६]
[३९५ [२५] इसी प्रकार प्रतिसेवानाकुशील के विषय में समझना चाहिए। २६. कसायकुसीले णं० पच्छा। गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होज्जा, कप्पातीते वा होज्जा। [२६ प्र.] भगवन् ! कषायकुशील जिनकल्प में होता है ? इत्यादि प्रश्न। [२६ उ.] गौतम ! वह जिनकल्प में भी होता है, स्थविरकल्प में भी और कल्पातीत में भी होता है। २७. नियंठे णं० पुच्छा। गोयमा ! नो जिणकप्पे होजा, नो थेरकप्पे होजा, कप्पातीते होजा। [२७ प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ जिनकल्प में होता है, स्थविरकल्प में या कल्पातीत होता है ?
[२७ उ.] गौतम ! वह न तो जिनकल्प में होता है और न ही स्थविरकल्प में; किन्तु वह कल्पातीत होता है।
२८. एवं सियाए वि[दारं ४] । . [२८] इसी प्रकार स्नातक के विषय में जानना चाहिए। [चतुर्थ द्वार]
विवेचन-स्थितकल्प और अस्थितकल्प? क्या और किनमें—कल्प कहते हैं—मर्यादा, अथवा साधना की मौलिक आचारसीमा को। ये कल्प शास्त्र में दस प्रकार के बताए हैं—(१) आचेलक, (२) औदेशिक, (३) राजपिण्ड, (४) शय्यातर, (५) मासकल्प, (६) चातुर्मासिक, (७) व्रत, (८) प्रतिक्रमण, (९) कृतिकर्म और (१०) पुरुष-ज्येष्ठ।
__ प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधु-साध्वी दस कल्प में स्थित होते हैं, क्योंकि इन दस कल्पों का पालन उनके लिए अनिवार्य होता है। इस कारण उनका कल्प स्थितकल्प कहलाता है। शेष २२ तीर्थंकरों के शासन में अस्थितकल्प होता है। क्योंकि मध्यगत तीर्थंकरों के साधुवर्ग में अस्थितकल्प होता है, क्योंकि वे कभी कल्प में स्थित होते हैं, कभी नहीं होते, क्योंकि उपर्युक्त सभी कल्पों का पालन उनके लिए आवश्यक नहीं होता। उपर्युक्त दस कल्पों में से ४,७, ९, १० ये चार स्थितकल्प हैं और १,२,३,५,६,८ ये ६ कल्प अस्थितकल्प हैं । मध्यम के २२ तीर्थकरों के साधुओं में अस्थितकल्प होता है। पुलाक आदि में दोनों प्रकार के कल्प होते हैं।
जिनकल्प, स्थविरकल्प और कल्पातीत क्या और किनमें ? –दूसरी अपेक्षा से कल्प के दो भेद किये गए हैं—जिनकल्प और स्थविरकल्प। जिनकल्प का पालन करने वाले संघ में नहीं रहते, न ही किसी को दीक्षा देते या शिष्य बनाते हैं। वे एकाकी वन में या पर्वतीय गुफा आदि में रहते हैं, निर्भय, निर्द्वन्द्व और निश्चिन्त होते हैं । वे जघन्य दो और उत्कृष्ट १२ उपकरण रखते हैं। स्थविरकल्पी संघ में, उपाश्रयादि में रहते हैं, शिष्य बनाते हैं, दीक्षा देते हैं, साधु प्रायः कम से कम दो और साध्वी कम से कम तीन साथ-साथ विचरण
१. (क) भगवती-उपक्रम, पृ.६०४
(ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८९४