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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र २०. सिणाए एवं चेव, नवरं नो उवसंतकसायवीयरागे होजा, खीणकसायवीयरागे होजा [दारं ३]
[२०] स्नातक के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु वह उपशान्तकषायवीतराग नहीं होता किन्तु क्षीणकषायवीतराग होता है। [तृतीय द्वार]
विवेचन-पंचविध निर्ग्रन्थों में तीन सराग, दो वीतराग–सराग का अर्थ है—सकषाय। कषाय दसवें गुणस्थान तक रहता है। इसलिए आदि के पुलाक, बकुश और कुशील (प्रतिसेवनाकुशील तथा कषायकुशील), ये तीन प्रकार के निर्ग्रन्थ सराग होते हैं, वीतराग नहीं। शेष निर्ग्रन्थ और स्नातक, ये दोनों प्रकार के निर्ग्रन्थ वीतराग होते हैं। निर्ग्रन्थ में उपशान्तकषायवीतरागता एवं क्षीणकषायवीतरागता दोनों होती हैं, जबकि स्नातक में एकमात्र क्षीणकषायवीतरागता होती है। पंचविध निर्ग्रन्थों में स्थितकल्पादि-जिनकल्पादि-प्ररूपणा : चतुर्थ कल्पद्वार
२१. पुलाए णं भंते ! किं ठियकप्पे होजा, अठियकप्पे होजा? गोयमा ! ठियकप्पे वा होजा, अठियकप्पे वा होजा। [२१ प्र.] भगवन् ! पुलाक स्थितकल्प में होता है, अथवा अस्थितकल्प में होता है ? [२१ उ.] गौतम ! वह स्थितकल्प में भी होता है और अस्थितकल्प में भी होता है। २२. एवं जाव सिणाए। [२२] इसी प्रकार (बकुश से लेकर) यावत् स्नातक तक जानना। २३. पुलाए णं भंते ! किं जिणकप्पे होज्जा, थेरकप्पे होज्जा, कप्पातीते होजा? गोयमा ! नो जिणकप्पे होजा, थेरकप्पे होजा, नो कप्पातीते होजा। [२३ प्र.] भगवन् ! पुलाक जिनकल्प में होता है, स्थविरकल्प में होता है अथवा कल्पातीत में होता है ?
[२३ उ.] गौतम ! वह न तो जिनकल्प में होता है और न कल्पातीत में होता है, किन्तु स्थविरकल्प में होता है।
२४. बउसे णं० पुच्छा। गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होजा, नो कप्पातीते होज्जा। [२४ प्र.] भगवन् ! बकुश जिनकल्प में होता है ? इत्यादि पृच्छा।
[२४ उ.] गौतम ! वह जिनकल्प में भी होता है, स्थविरकल्प में भी होता है, किन्तु कल्पातीत में नहीं होता।
२५. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८९४
(ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग २ (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. १०२०