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पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-६]
[ ३८९ [८ उ.] गौतम ! कषायकुशोल भी पांच प्रकार के कहे हैं। यथा—(१) ज्ञानकषायकुशील, (२) दर्शनकषायकुशील, (३) चारित्रकषायकुशील, (४) लिंगकषायकुशील और पांचवें (५) यथासूक्ष्मकषायकुशील।
९. नियंठे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ?
गोयमा ! पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा–पढमसमयनियंठे अपढमसमयनियंठे चरिमसमयनियंठे अचरिमसमयनियंठे अहासुहमनियंठे णामं पंचमे।
[९ प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ कितने प्रकार के कहे हैं ?
[९ उ.] गौतम ! वे पांच प्रकार के कहे हैं। यथा—(१) प्रथम-समय-निर्ग्रन्थ, (२) अप्रथमसमय-निर्ग्रन्थ, (३) चरम-समय-निर्ग्रन्थ (४) अचरम-समय-निर्ग्रन्थ और पांचवें (५) यथासूक्ष्म-निर्ग्रन्थ ।
१०. सिणाए णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ?
गोयमा ! पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा—अच्छवी १ असबले २ अकम्मंसे ६ संसुद्धनाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली ४ अपरिस्सावी ५।[दारं १] ।
[१० प्र.] भगवन् ! स्नातक कितने प्रकार के कहे हैं ?
[१० उ.] गौतम ! स्नातक पांच प्रकार के कहे हैं। यथा—(१) अच्छवि, (२) असबल, (३) अकमांश, (४) संशुद्ध-ज्ञान-दर्शनधर अर्हन्त जिन केवली एवं (५) अपरिस्रावी॥ [द्वार-१]
विवेचन—निर्ग्रन्थ : प्रकार स्वरूप और भेद-सभी निर्ग्रन्थ यद्यपि सर्वविरति चारित्र अंगीकार किये हुए होते हैं, तथापि चारित्र-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम की विभिन्नता-विचित्रता के कारण निर्ग्रन्थ के मूलत: ५ प्रकार होते हैं । यथा—पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक।
पुलाक का लक्षण–पुलाक का अर्थ है नि:सार धान्यकण। पुलाक की तरह संयम-साररहित को यहाँ पुलाकश्रमण कहा जाता है। संयमवान् होते हुए भी वह किसी छोटे-से दोष के कारण संयम को किंचित् असार कर देता है, इस कारण वह पुलाक कहलाता है। पुलाक के मुख्यतया दो भेद हैं-लब्धिपुलाक और आसेवनापुलाक। लब्धिपुलाक लब्धिविशेष का धनी होता है। संघ आदि के विशेष कार्य के निमित्त से अथवा कोई चक्रवर्ती आदि जिनशासन तथा साधु-साध्वियों की आशातना करे, ऐसी स्थिति में उसकी सेना आदि को दण्ड देने हेतु लब्धिप्रयोग करे, वह लब्धिपुलाक कहलाता है। कुछ आचार्यों का मत है कि जो ज्ञानपुलाक होता है, उसी को ऐसी लब्धि होती है, अत: वही लब्धिपुलाक होता है । उसके सिवाय अन्य कोई लब्धिपुलाक नहीं होता। परन्तु यहाँ मूल में आसेवनापुलाक के ही भेदों का प्रतिपादन किया गया है। ज्ञानपुलाक वह है, जो स्खलना, विस्मरण, विराधना, आशातना आदि दूषणों के ज्ञान की किंचित् विराधना करता है। दर्शनपुलाक वह है, जो शंकादि दूषणों से सम्यक्त्व की विराधना करता है। मूल-उत्तर-गुण की विराधना से जो चारित्र को दूषित करता है, वह चारित्रपुलाक कहलाता है। जो साधक अकारण ही अन्य लिंग धारण कर लेता है वह लिंगपुलाक है। जो साधक आकल्पित-सेवन करने के अयोग्य दोषों का मन से सेवन करता है, वह यथासूक्ष्मपुलाक कहलाता है । यहाँ पुलाक साधक संयम को निस्सार कर देता है, वह समय की अपेक्षा से थोड़े समय के लिए करता है।