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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बकुश का लक्षण-बकुश कहते हैं शबल या कर्बुर, अर्थात् चितकबरे को। बकुश की तरह संयम भी जिसका चितकबरा हो गया हो। इसके मुख्यतया दो भेद हैं—उपकरणबकुश और शरीरबकुश। जो वस्त्रपात्रादि उपकरणों को विभूषित-श्रृंगारित करने के स्वभाववाला हो, वह उपकरणबकुश होता है तथा जो हाथपैर, मुंह, नख आदि शरीर के अंगोपांगों को सुशोभित किया करता है, वह शरीरबकुश होता है। दोनों प्रकार के बकुशों के पांच भेद हैं—(१) आभोगबकुश–साधुओं के लिए शरीर, उपकरण आदि को सुशोभित करना अयोग्य है, यों जानते हुए भी जो दोष लगाता है। (२) अनाभोगबकुश—जो न जानते हुए दोष लगाता हो, वह अनाभोगबकश है। (३) मल और उत्तर गणों में प्रकट रूप से दोष लगाए. वह असंवतबकश है। (४) जो छिपकर या गुप्त रूप से दोष लगाता है, वह संवृतबकुश है। (५) जो हाथ मुंह धोता है, आँखों में अंजन लगाता है, वह यथासूक्ष्मबकुश हैं।
कुशील : लक्षण और प्रकार—जिसका शील अर्थात् चारित्र कुत्सित हो, वह कुशील कहलाता है। इसके मुख्य दो भेद हैं—प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील। सेवना का अर्थ है—सम्यक् आराधना, उसका प्रतिपक्ष है—प्रतिसेवना। उसके कारण जो साधक कुशील हो, वह प्रतिसेवनाकुशील है। कषायों के कारण जिसका शील (चारित्र) कुत्सित हो गया हो, वह कषायकुशील श्रमण है। जो साधक ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लिंग को लेकर आजीविका करता हो, वह क्रमशः ज्ञानप्रतिसेवना-कुशील, दर्शनप्रतिसेवनाकुशील, चारित्रप्रतिसेवना-कुशील एवं लिंगप्रतिसेवना-कुशील कहलाता है। यह तपस्वी है, क्रियापात्र है' इत्यादि प्रकार की प्रशंसा से प्रसन्न होता है तथा तपस्या आदि के फल की इच्छा करता है और देवादि-पद की वांछा करता है वह यथासूक्ष्मप्रतिसेवना-कुशील निर्ग्रन्थ है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र को लेकर जो क्रोध, मान आदि कषायों के उदय से ऊँच-नीच परिणाम लाए और ज्ञानादि में दोष लगाए अथवा ज्ञानादि का क्रोधादि कषायों में उपयोग करे वह क्रमशः ज्ञानकषायकुशील, दर्शनकषायकुशील एवं चारित्रकषायकुशील है। जो कषायपूर्वक वेष-परितर्वन करता है, वह लिंगकषायकुशील है। जो कषायवश किसी को शाप देता है, वह भी चारित्रकषायकुशील है तथा जो मन से क्रोधादि कषाय का सेवन करता है, वह यथासूक्ष्मकषायकुशील है।
निर्ग्रन्थ : प्रकार और स्वरूप—निर्ग्रन्थ के पांच प्रकार हैं—(१) प्रथम-समय-निर्ग्रन्थ-दसवें गुणस्थान से आगे ११ वें उपशान्तमोह अथवा १२ वें क्षीणमोहगुणस्थान के काल (जो कि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है) के प्रथम समय में वर्तमान हो। (२) अप्रथम-समय-निर्ग्रन्थ-११ वें या १२ वें गुणस्थान में जिसे दो समय से अधिक हो गया हो, वह । (३) चरम-समय-निर्ग्रन्थ-जिसकी छद्मस्थता केवल एक समय की बाको रही हो। (४) अचरम-समय-निर्ग्रन्थ-जिसकी छद्मस्थता दो समय से अधिक बाकी रही हो। (५) यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ-जो सामान्य निर्ग्रन्थ, प्रथम आदि समय की विवक्षा से भिन्न हो।
- स्नातक : पांच प्रकार और स्वरूप-पूर्णतया शुद्ध, अखण्ड एवं सुगन्धित चावल के समान शुद्ध अखण्ड चारित्रवाले निर्ग्रन्थ स्नातक कहलाते हैं। स्नातक के पांच प्रकार हैं-(१) अच्छवि-छवि अर्थात् शरीर, इस दृष्टि से अच्छवि का अर्थ होता है—योग के निरोध के कारण जिसमें छवि (शरीर) भाव बिल्कुल न हो वह । अथवा घातिकर्मचतुष्टयक्षपण के बाद कोई क्षपण शेष न रहा हो, वह अक्षपी होता है। (२) अशबल-एकान्तविशुद्धचारित्र वाला, अर्थात्—जिसमें अतिचाररूपी. पंक बिल्कुल न हो। (३)