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पच्चीसवां शतक : उद्देशक-४]
[ ३७५ जीवास्तिकाय-मध्यप्रदेश तथा आकाशास्तिकायप्रदेशों की अवगाहना की प्ररूपणा
२५०. एए णं भंते ! अट्ठ जीवत्थिकायस्स मज्झपएसा कतिसु आगासपएसेसु ओगाहंति ? __ गोयमा ! जहन्नेणं एक्कंसि वा दोहि वा तीहि वा चउहिं वा पंचहिं वा छहिं वा, उक्कोसेणं अट्ठसु, नो चेव णं सत्तसु। सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति०।
॥पंचवीसइमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो ॥ २५-४॥ [२५० प्र.] भगवन् ! जीवास्तिकाय के ये आठ मध्य-प्रदेश कितने आकाशप्रदेशों को अवगाहित कर (........... में समा) सकते हैं ?
[२५० उ.] गौतम ! वे जघन्य एक, दो, तीन, चार, पांच या छह तथा उत्कृष्ट आठ आकाशप्रदेशों में अवगाहित हो (समा) सकते हैं, किन्तु सात प्रदेशों में नहीं समाते।
"हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं।
विवेचन-मध्यप्रदेशों का अवगाहन-जीव (आत्म-) प्रदेशों का धर्म संकोच और विकास (विस्तार) होने से उनके आठ मध्य-प्रदेश एक आकाशप्रदेश से लेकर आठ आकाशप्रदेशों में रह (समा) सकते हैं, किन्तु सात आकाशप्रदेशों में नहीं रहते (समाते); क्योंकि वस्तुस्वभाव ही कुछ ऐसा है।'
॥ पच्चीसवां शतक : चतुर्थ उद्देशक सम्पूर्ण॥
१.
भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८८७