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________________ पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक-४] [३४१ ८४. ते णं भंते ! किं देसेया, सव्वेया ? गोयमा ! देसेया वि, सव्वेया वि। से तेणद्वेण जाव निरेया वि। [८४ प्र.] भगवन् ! वे (अशैलेशी-प्रतिपन्नक) देशकम्पक हैं या सर्वकम्पक? [८४ उ.] गौतम ! वे देशकम्पक भी हैं और सर्वकम्पक भी हैं। इस कारण से हे गौतम ! यावत् वे निष्कम्प भी हैं, यह कहा गया है। ८५.[१] नेरइया णं भंते ! किं देसेया, सव्वेया ? गोयमा ! देसेया वि, सव्वेया वि। [८५-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिक देशकम्पक हैं या सर्वकम्पक हैं ? [८५-१ उ.] गौतम ! वे देशकम्पक भी हैं और सर्वकम्पक भी हैं। [२] से केणद्वेणं जाव सव्वेया वि? गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा—विग्गहगतिसमावनगा य, अविग्गहगतिसमावनगा य। तत्थ णं जे ते विग्गहगतिसमावनगा ते णं सव्वेया, तत्थ णं जे ते अविग्गहगतिसमावनगा ते णं देसेया, से तेणद्वेणं जाव सव्वेया वि। [८५-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से कहा जाता है कि नैरयिक देशकम्पक भी हैं और सर्वकम्पक भी हैं ? . [८५-२ उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे हैं । यथा-विग्रहगति-समापन्नक और अविग्रहगतिसमापन्नक। उनमें से जो विग्रहगति-समापनक हैं, वे सर्वकम्पक हैं और जो विग्रहगति-समापनक हैं, वे देशकम्पक हैं। इस कारण से यह कहा जाता है कि नैरयिक देशकम्पक भी हैं और सर्वकम्पक भी हैं। ८६. एवं जाव वेमाणिया। [८६] इसी प्रकार (असुरकुमार से लेकर) वैमानिकों तक जानना चाहिए। विवेचन-जीवों और चौवीस दण्डकों में सकम्पता-निष्कम्पता—सिद्धत्व-प्राप्ति के प्रथम समयवर्ती जीव 'अनन्तर-सिद्ध' कहलाते हैं, क्योंकि उस समय एक समय का भी अन्तर नहीं होता, अतएव सिद्धत्व के प्रथम समय में वर्तमान सिद्धजीवों में कम्पन्न होता है। उसका कारण यह है कि सिद्धिगमन का और सिद्धत्व-प्राप्ति का समय एक ही होने से और सिद्धिगमन के समय गमनक्रिया होने से वे सकम्प होते हैं । जिन्हें सिद्धत्व प्राप्ति के पश्चात् दो-तीन आदि समय का अन्तर पड़ जाता है, वे ‘परम्पर-सिद्ध' कहलाते हैं। वे सर्वथा निष्कम्प होते हैं। मोक्षगमन के पूर्व जो जीव शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं, वे योगों का सर्वथा निरोध कर देते हैं, अतः उस समय वे निष्कम्प होते हैं । जो जीव मर कर ईलिका-गति से उत्पत्तिस्थान में जाते हैं, वे देशत: सकम्प होते हैं, क्योंकि उनका पूर्वशरीर में रहा हुआ अंश गतिक्रिया-रहित होने से निष्कम्प (निश्चल) होता है और जो
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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