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पच्चीसवां शतक : उद्देशक-४]
[३३१ २७. एवं जाव ईसिपब्भारा पुढवी। [२७] इसी प्रकार [ईशान देवलोक से लेकर] ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक के विषय में समझना चाहिए।
विवेचन धर्मास्तिकाय आदि की कृतयुग्मता—धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि सभी अस्तिकाय लोकप्रमाण होने से वे लोकाकाश के असंख्यात-प्रदेशों में अवगाढ़ हैं । लोक असंख्यात-प्रदेशों में अवस्थित हैं, इसलिए इन सबमें कृतयुग्मता ही घटित होती है। इसी प्रकार दूसरे सभी अस्तिकाय भी लोकप्रमाण होने से उनमें भी कृतयुग्मता है, किन्तु आकाशास्तिकाय के अवस्थित अनन्तप्रदेश होने से तथा आत्मावगाही होने से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ़ता है तथा अद्धासमय अवस्थित असंख्येय-प्रदेशात्मक मनुष्यक्षेत्रावगाही होने से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ़ है। जीव एवं चौवीस दण्डकों में एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थरूप युग्मभेदनिरूपण
२८. जीवे णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं कडजुम्मे० पुच्छा। गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेयोए, नो दावरजुम्मे, कलियोए। [२८ प्र.] भगवन् ! (एक) जीव द्रव्यार्थरूप से कृतयुग्म है.? इत्यादि प्रश्न। [२८ उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म, त्र्योज या द्वापरयुग्म नहीं, किन्तु कल्योजरूप है। २९. एवं नेरइए वि। [२९] इसी प्रकार (एक) नैरयिक के विषय में जानना चाहिए। ३०. एवं जाव सिद्धे। [३०] इसी प्रकार सिद्ध-पर्यन्त जानना। ३१. जीवा णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं कडजुम्मा० पुच्छा।
गोयमा ! ओघादेसणं कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावर०, नो कलियोगा; विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, कलियोगा।
[३१ प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव द्रव्यार्थरूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न।
[३१ उ.] गौतम ! वे ओघादेश से (सामान्यतः) कृतयुग्म हैं, किन्तु योज, द्वापरयुग्म या कल्योजरूप नहीं हैं। विधानादेश (प्रत्येक की अपेक्षा) से वे कृतयुग्म, त्र्योज तथा द्वापरयुग्म नहीं हैं, किन्तु कल्योजरूप हैं।
३२. नेरइया णं भंते ! दव्वट्ठताए० पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव सिए कलियोगा; विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा,
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८७४