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________________ ३२२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! दुवालसंगे गणिपिडए पन्नत्ते, तं जहा—आयारो जाव दिट्ठिवाओ। [११५ प्र.] भगवन् ! गणिपिटक कितने प्रकार का कहा है ? [११५ उ.] गौतम ! गणिपिटक बारह-अंगरूप (द्वादशांग रूप) कहा है। यथा—आचारांग यावत् दृष्टिवाद। ११६. से किं तं आयारो? आयारे णं समणाणं निग्गंथाणं आयारगो० एवं अंगपरूवणा भाणियव्वा जहा नंदीए। जाव सुत्तत्थो खलु पढमो बीओ निजुत्तिमीसओ भणिओ। तइओ य निरवसेसो एस विही होइ अणुयोगे॥१॥ [११६ प्र.] भगवन् ! आचारांग किसे कहते हैं ? । [११६ उ.] आचारांग-सूत्र में श्रमण-निर्ग्रन्थों के आचार, गोचर-विधि (भिक्षाविधि) आदि चारित्रधर्म की प्ररूपणा की गई है। नन्दीसूत्र के अनुसार सभी अंग-सूत्रों का वर्णन जानना चाहिए, यावत्-सुत्तत्थो खलु पढमो (गाथार्थ—) सर्वप्रथम सूत्र का अर्थ कहना चाहिए। दूसरे में नियुक्ति-मिश्रित अर्थ कहना चाहिए और फिर तीसरे में निरवशेष अर्थात्—सम्पूर्ण अर्थ का कथन करना चाहिए। यह अनुयोग (सूत्रानुसार अर्थ प्रदान करने) की विधि है ॥१॥ विवेचन-गणिपिटक : स्वरूप और अंग-गणि अर्थात् आचार्य के लिए, जो पिटक अर्थात् रत्नों के करण्डक के समान पिटारा हो, उसे 'गणिपिटक' कहते हैं। गणिपिटक के आचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक बारह अंगरूप भेद कहे हैं। नन्दीसूत्र में आचारांग आदि में वर्णित विषयों का कथन है। जैसे किआचारांगसूत्र में श्रमण-निर्ग्रन्थों के अनेकविध आचार, गोचर (भिक्षाविधि) विनय, विनयफल, ग्रहणशिक्षा, आसेवनशिक्षा आदि का वर्णन किया है। इसी प्रकार अन्य अंगशास्त्रों का वर्णन भी नन्दीसूत्र से जान लेना चाहिए। नन्दीसूत्र-वर्णित अनुयोगविधि—यहाँ मूलपाठ में 'सुत्तत्थे खलु पढमो' इत्यादि गाथा द्वारा नन्दीसूत्र में वर्णित अनुयोगविधि अर्थात्-गुरुदेव द्वारा शिष्य को दी जाने वाली वाचना की विधि बताई गई है। वह इस प्रकार है-(१) सर्वप्रथम मूलसूत्र और उसका अर्थ मात्र कहना चाहिए। नवदीक्षित या नवागत शिष्यों को मतिविभ्रम न हो जाए, इसलिए पहले-पहल उन्हें विस्तृत विवेचन न करके केवल सूत्रार्थमात्र कहना उचित है। (२) इसके पश्चात् सूत्रस्पर्शिक (सूत्रानुसारिणी) नियुक्ति (टीका आदि व्याख्या) सहित अर्थ कहना चाहिए। यह द्वितीय अनुयोग है। (३) तदन्तर प्रसंगानुप्रसंग के कथन से समग्र व्याख्या कहनी चाहिए। यह तृतीय अनुयोग है। मूलसूत्र को अनुकूल अर्थ के साथ संयोजित करना ‘अनुयोग' है। अनुयोग की यह विधि है। १. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा.७, पृ. ३२६२ २. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८६९
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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