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________________ चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-१२] [२०५ नौवें गमक में कालादेश से जघन्य बाईस हजार वर्ष अधिक साधिक सागरोपम काल तक गमनागमन करता है। [गमक १ से ९ तक] विवेचन—पृथ्वीकायिक में असुरकुमारों की उत्पत्तिसम्बन्धी कुछ स्पष्टीकरण(१) असुरकुमारों का संहनन-सिद्धान्ततः देवों का शरीर संहनन वाला नहीं होता, उनके शरीर में हड्डी, शिरा (नसें) तथा स्नायु आदि नहीं होते, किन्तु इष्ट, कान्त, प्रिय एवं मनोज्ञ पुद्गल संघातरूप से परिणत हो जाते हैं। (२) अवगाहना-उत्पत्ति के समय देवों के भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग होती है, जबकि उत्तरवैक्रिय अवगाहना आभोग (उपयोग)-जनित होने से जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग होती है; भवधारणीय अवगाहना के समान वे अंगुल के असंख्यातवें भाग अवगाहना नहीं कर सकते। उत्तरवैक्रिय अवगाहना इच्छानुसार होने से उत्कृष्ट एक लाख योजन तक की की जा सकती है। (३) संस्थान—इसी प्रकार उत्तरवैक्रिय संस्थान अपनी इच्छानुसार बनाया जाता है, इसलिए वह नाना प्रकार का होता है। (४) अज्ञान–इनमें तीन अज्ञान भजना से कहे गए हैं, इसका कारण यह है कि जो असुरकुमार असंज्ञी जीवों से आते हैं, उनमें अपर्याप्त-अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता। शेष में होता है । इसलिए अज्ञान के विषय में भजना कही गई है। (५) संवेध–जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का जो कहा गया है, उसमें, पृथ्वीकायिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और असुरकुमारों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की, दोनों को मिला कर कहा गया है। इसी प्रकार उत्कृष्ट के विषय में समझना चाहिए कि पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट स्थिति २२,००० वर्ष की है और असुरकुमारों की उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक सागरोपम है। इन दोनों को मिला कर उत्कृष्ट संवेध कहा गया है। इसका संवेधकाल भी इतना ही है, क्योंकि असुरकुमारादि से निकल कर पृथ्वीकाय में आते हैं किन्तु पृथ्वीकाय से निकल कर असुरकुमारादि में नहीं आते। मध्य के तीन गमकों में असुरकुमारों की स्थिति दस हजार वर्ष की तथा अन्तिम तीन गमकों में सातिरेक सागरोपम की समझनी चाहिए। पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के भवनपति देवों में उत्पत्ति-परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा ४७, नागकुमारे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु०? एस चेव वत्तव्वया जाव भवादेसो त्ति। णवरं ठिती जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलितोवमाइं। एवं अणुबंधो वि, कालाएसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं बावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियाई। एवं णव वि गमगा असुरकुमारगमगसरिसा, नवरं ठिर्ति कालाएसं च जाणेजा। एवं जाव थणियकुमाराणं। [४७ प्र.] भगवन् ! जो नागकुमार देव पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८३२ (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन.) भा. ६, पृ. ३०९७-३०९८
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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