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________________ २०४] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [४५ प्र.] भगवन् ! उन जीवों के शरीर की आवगाहना कितनी बड़ी होती है ? [४५ उ.] गौतम ! (उनके शरीर की अवगाहना) दो प्रकार की कही गई है। यथा—भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। उनमें जो भवधारणीय अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सप्त रत्नि (हाथ) की है तथा उनमें जो उत्तरवैक्रिय अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कष्ट एक लाख योजन की है। ४६. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किंसंठिता पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा—भवधारणिज्जा य, उत्तरवेउव्विया य। तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते समचतुरंससंठिया पन्नत्ता। तत्थ णं जे ते उत्तरवेउब्विया ते नाणसंठिया पन्नत्ता। लेस्साओ चत्तारि। दिदी तिविहा वि। तिण्णी णाणा नियम. तिणि अण्णाणा भयणाए। जोगो तिविहो वि। उवयोगो दुविहो वि। चत्तारि सण्णओ। चत्तारि कसाया। पंच इंदिया। पंच समुग्घाया। वेयणा दुविहा वि। इत्थिवेदगा वि, पुरिसवेदगा वि, नो नपुंसगवेयगा। ठिती जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं । अज्झवसाणा असंखेजा, पसत्था वि अप्पसत्था वि। अणुबंधो जहा ठिती। भवादेसेणं दो भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं, एवतियं० । एवं णव वि गमा नेयव्वा, नवरं मझिल्लएसु पच्छिल्लएसु य तिसु गमएसु असुरकुमाराणं ठितिविसेसो जाणियव्यो। सेसा ओहिया चेव लद्धी कायसंवेहं च जाणेजा।सव्वत्थ दो भवग्गहणा जाव णवमगमए कालादेसेणं जहन्नेणं सातिरेगं सागरोवमं वासीसाए वाससहस्सेहिमब्भहियं, उक्कोसेण वि सातिरेगं सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं, एवतियं०।[१-९ गमगा] [४६ प्र.] भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौन-सा कहा गया है ? (इत्यादि प्रश्न।) [४६ उ.] गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के कहे गए हैं—भवधारणीय पौर उत्तरवैक्रिय। उनमें जो भवधारणीय शरीर हैं, वे समचतुरस्रसंस्थान वाले कहे गए हैं तथा जो उत्तरवैक्रिय शरीर हैं, अनेक वे प्रकार के संस्थान वाले कहे गए हैं। उनके चार लेश्याएं, तीन दृष्टियाँ नियमतः तीन ज्ञान, तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से, योग तीन, उपयोग दो, संज्ञाएं चार, कषाय चार, इन्द्रियां पांच, समुद्घात पांच और वेदना दो प्रकार की होती है। वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी होते हैं, नपुंसकवेदी नहीं होते। उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम की होती है। उनके अध्यवसाय असंख्यात प्रकार के प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं। अनुबन्ध स्थिति के अनुसार होता है। (संवेध) भवादेश से वह दो भव ग्रहण करता है। कालादेश से—जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक सातिरेक सागरोपम; इतने काल तक गमनागमन करता है। इस प्रकार नौ ही गमक जानने चाहिए। विशेष यह है कि मध्यम और अन्तिम तीन-तीन गमकों में असुरकुमारों की स्थिति-विषयक विशेषता जान लेनी चाहिए। शेष औधिक वक्तव्यता और काय-संवेध जानना चाहिए। संवेध में सर्वत्र दो भव जानने चाहिए। इस प्रकार यावत्
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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