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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
[११३ प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में (कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न ।) [११३ उ.] (गौतम ! ) इसकी सभी वक्तव्यता पूर्ववत् शर्कराप्रभापृथ्वी के गमक के समान समझनी चाहिए। विशेष यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी में प्रथम संहनन वाले ही उत्पन्न होते हैं । वहाँ स्त्रीवेदी उत्पन्न नहीं होते । शेष समग्र कथन अनुबन्ध तक पूर्ववत् जानना चाहिए। भव की अपेक्षा से दो भव ग्रहण और काल की अपेक्षा से जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम; इतने काल तक गमनागमन करता है। [सू. ११२-११३ प्रथम गमक ]
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११४. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, एसा चेव वत्तव्वया, नवरं नेरइयट्ठितिं संवेहं च जाणेज्जा । [ सु० ११४ बीओ गमओ ]
[११४] यदि वही मनुष्य, जघन्य काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी - नारकों में उत्पन्न हो, तो भी यही (पूर्वोक्त) वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ नैरयिक की स्थिति और संवेध स्वयं विचार करके कहना चाहिए। [११४ द्वितीय गमक ]
११५. सो चेव उक्कोसकालट्ठितीएसु उववन्नो, एसा चेव वत्तव्वया, नवरं संवेहं जाणेजा । [ सु० ११५ तइओ गमओ ]
[११५] यदि वही मनुष्य, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न हो, तो भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि इसका संवेध स्वयं जान लेना चाहिए। [सू. ११५ तृतीय गमक ]
११६. सो चेव अप्पणा जहन्नकालट्ठितीओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएसु एसा चेव वत्तव्वया, नवरं सरीरोगाहणा जहन्त्रेणं रयणिपुहत्तं; उक्कोसेण वि रयणिपुहत्तं, ठिती जहन्त्रेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेण वि वासपुहत्तं; एवं अणुबंधो वि; संवेहो उवजुंजिऊण भाणियव्वो । [ सु० ११६ चउत्थ - पंचम-छट्टगमा ] ।
[११६] यदि वही (पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी - मनुष्य) स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों (जघन्य स्थिति वाले संज्ञी मनुष्य की सप्तमनरकपृथ्वी के नारकों में उत्पत्ति-सम्बन्धी चतुर्थ गमक, इसी मनुष्य की जघन्य स्थिति वाले सप्तम नरक के नारकों में उत्पत्तिसम्बन्धी पंचम गमक और इसी मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पत्ति सम्बन्धी छटे गमक) में यही वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि उसके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रनिपृथक्त्व होती है। उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व की होती है । अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है। संवेध के विषय में उपयोग पूर्वक कहना चाहिए। [ सू. ११६ चतुर्थ पंचम - षष्ठ गमक ]
११७. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठितीओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएस एसा चैव वत्तव्वया, नवरं सरीरोगाहणा जहन्त्रेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेण वि पंच धणुसयाई; ठिती जहन्नेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी; एवं अणुबंधो वि । नवसु वि एएसु गमएसु नेरइयट्ठितिं संवेहं च जाणेज्जा। सव्वत्थ भवग्गहणाई दोन्नि जाव नवमगमए कालादेसेणं जहन्त्रेणं तेत्तीसं सागरोवमाई