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चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-१]
[१६३ पुवकोडीए अब्भहियाई उक्कोसेणं वि तेत्तीसं सागरोवमाई पुव्वकोडीए अब्भहियाई, एवतियं कालं सेवेजा, एवतियं कालं गतिरागतिं करेजा। [सु० ११७ सत्तम-अट्ठम-नवमगमगा]। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति।
॥चउवीसइम सते : पढमो उद्देसओ समत्तो॥ २४-१॥ [११७] यदि वह संज्ञी मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न हो, तो उसके भी तीनों गमकों में (उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञी मनुष्य की सप्तम नरक के नारकों में उत्पत्तिसम्बन्धी सप्तम गमक, ऐसे ही मनुष्य की जघन्य स्थिति वाले सप्तम नरक के नारकों में उत्पत्तिसम्बन्धी अष्टम गमक और ऐसे ही मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति वाले सप्तम नरक के नारकों में उत्पत्तिसम्बन्धी नवम गमक की यही (पूर्वोक्त) वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष इतना ही है कि शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की है। स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटिवर्ष की है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी जानना चाहिए। इन (उपर्युक्त) नौ ही गमकों में नैरयिकों की स्थिति और संवेध स्वयं विचार कर जान लेना चाहिए। यावत् नौवें गमक तक दो ही भवग्रहण होता है; काल की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम; इतना काल सेवन (यापन) करता है और इतने काल तक गमनागमन करता है। [सू. ११७ सप्तम-अष्टम-नवम-गमक]
___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं।
विवेचन—सप्तम नरकपृथ्वी में कायसंवेध–सप्तम नरकपृथ्वीसम्बन्धी प्रथम गमक में कायसंवेध उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम कहा गया है, क्योंकि सातवें नरक से निकला हुआ जीव मनुष्य रूप से उत्पन्न नहीं होता। अत: प्रथम मनुष्य का भव और दूसरा सप्तम नरक का भव, इन दो भवों में कायसंवेध इतने ही काल का होता है। नौ ही गमकों में भव की अपेक्षा से संज्ञी मनुष्य दो भव ही ग्रहण करता है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
॥ चौवीसवाँ शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त॥
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१, (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८१७
(ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. २ (मूलपाठ-टिप्पणी) पृ. ९२१