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________________ चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-१] [१६१ सम्बन्धी अष्टम गमक एवं (९) उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों में उत्पत्तिसम्बन्धी नवम गमक में शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की है। इसी प्रकार दूसरे नानात्व भी समझ लेने चाहिए। तिर्यञ्च की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की कही गई थी, लेकिन मनुष्यगमकों में मनुष्य स्थिति कहनी चाहिए। किन्तु शर्कराप्रभादि नरकों में जाने वाले मनुष्यों की स्थिति जघन्य वर्षपृथक्त्व की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की होती है। बालुका-पंक-धूम-तमःप्रभा नरक में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्कसंज्ञी-मनुष्य में उपपात-परिमाणादि द्वारों की प्ररूपणा १११. एवं जाव छट्ठपुढवी, नवरं तच्चाए आढवेत्ता एक्केक्कं संघयणं परिहायति जहेव तिरिक्खजोणियाणं; कालादेसो वि तहेव, नवरं मणुस्सट्ठिती जाणियव्वा। [१११] इसी प्रकार छठी नरकपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि तीसरी नरकपृथ्वी से लेकर आगे तिर्यञ्चयोनिक के समान एक-एक संहनन कम होता है। कालादेश भी इसी प्रकार कहना चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि यहाँ मनुष्यों की स्थिति जाननी चाहिए। विवेचन—प्रस्तुत १११वें सूत्र में तीसरी से छठी नरकपृथ्वी तक उत्पत्ति आदि के कथन का पूर्ववत् अतिदेश किया गया है। जो विशेषताएँ हैं वे मूल पाठ में स्पष्ट हैं। सप्तमनरक में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्कसंज्ञी-मनुष्य में उपपातपरिमाणादि द्वारों की प्ररूपणा ११२. पजत्तसंखेजवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए अहेसत्तमपुढविनेरइएसु उववजित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं बावीससागरोवमट्टितीएसु, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमट्ठिसीएसु उववजेजा। । [११२ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्क-संज्ञी मनुष्य, जो सप्तमपृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [११२ उ.] गौतम ! वह जघन्य बाईस सागरोपम की स्थिति वाले और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। ११३. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? अवसेसो सो चेव सक्करप्पभापुढविगमओ नेयव्वो, नवरं पढमं संघयणं, इत्थिवेदगा न उववजंति। सेसं तं चेव जाव अणुबंधो त्ति। भवादेसेणं दो भवग्गहणाइं; कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अब्भहियाई, एवतियं जाव करेजा। [सु० ११२-१३ पढमो गमओ]। १. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८१७
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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