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जैनधर्म में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच महान् आत्मा माने गये हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक गुणों का विकास किया। आध्यात्मिक उत्कर्ष में न वेष बाधक है और न लिंग ही। स्त्री हो या पुरुष, सभी अपना अध्यात्मिक उत्कर्ष कर सकते हैं। नमोक्कार महामंत्र में अरिहन्तों को नमस्कार किया गया हैं, किन्तु तीर्थंकरों को नहीं। तीर्थंकर भी अरिहन्त हैं तथापि सभी अरिहन्त तीर्थंकर नहीं होते । अरिहन्तों के नमस्कार में तीर्थंकर स्वयं आ जाते हैं। पर तीर्थंकर को नमस्कार करने में सभी अरिहन्त नहीं आते। यहाँ पर तीर्थंकरत्व मुख्य नहीं है, मुख्य है— अर्हत्भाव। जैनधर्म की दृष्टि तीर्थंकरत्व औदयिक प्रकृति है, वह एक कर्म के उदय का फल है किन्तु अरिहन्तदशा क्षायिक भाव है। वह कर्म का फल नहीं अपितु कर्मों की निर्जरा का फल है। तीर्थंकरों को भी जो नमस्कार किया जाता है, उसमें भी अर्हत्भाव ही मुख्य रहा हुआ है। इस प्रकार नमोक्कार महामंत्र में व्यक्ति-विशेष को नहीं, किन्तु गुणों को नमस्कार किया गया है। व्यक्तिपूजा नहीं किन्तु गुणपूजा को महत्त्व दिया गया है । यह कितनी विराट् और भव्य भावना है।
प्राचीन ग्रन्थों में नमोकार महामंत्र को पंचपरमेष्ठीमंत्र भी कहा है। 'परमे तिष्ठतीति' अर्थात् जो आत्माएं परमे शुद्ध, पवित्र स्वरूप में, वीतराग भाव में ष्ठी-रहते हैं—वे परमेष्ठी हैं। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति करने के कारण अरिहन्त, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और साधु ही पंच परमेष्ठी हैं। यही कारण है कि भौतिक दृष्टि से चरम उत्कर्ष को प्राप्त करने वाले चक्रवर्ती सम्राट् और देवेन्द्र भी इनके चरणों में झुकते हैं । त्याग के प्रतिनिधि—ये पंच परमेष्ठी हैं। पंच परमेष्ठी में सर्वप्रथम अरिहन्त हैं। जिन्होंने पूर्णरूप से सदा-सर्वदा के लिए राग-द्वेष को नष्ट कर दिया है, वे अरिहन्त हैं, जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त शक्ति रूप वीर्य के धारक होते हैं, सम्पूर्ण विश्व के ज्ञाता / दृष्टा होते हैं जो सुख - दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, प्रभृति विरोधी द्वन्द्वों में सदा रहते हैं। तीर्थंकर और दूसरे अरिहन्तों में आत्मविकास की दृष्टि से कुछ भी अन्तर नहीं है।
दूसरा पद सिद्ध का है। सिद्ध का अर्थ पूर्ण है। जो द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार के कर्मों से अलिप्त होकर निराकुल आनन्दमय शुद्ध स्वभाव में परिणत हो गये, वे सिद्ध हैं। यह पूर्ण मुक्त दशा है। यहाँ पर न कर्म हैं, न कर्मबन्धन के कारण ही हैं। कर्म और कर्मबन्ध के अभाव के कारण आत्मा वहाँ से पुन: लौटकर नहीं आता । वह लोक के अग्रभाग में ही अवस्थित रहता है । वहाँ केवल विशुद्ध आत्मा ही आत्मा है, परद्रव्य और परपरिणति का पूर्ण अभाव है । यह विदेहमुक्त अवस्था है । यह आत्मविकास की अन्तिम कोटि है। दूसरे पद में उस परमविशुद्ध आत्मा को नमस्कार किया गया है।
तृतीय पद में आचार्य को नमस्कार किया गया है। आचार्य धर्मसंघ का नायक है । वह संघ का संचालनकर्त्ता है, साधकों के जीवन का निर्माणकर्त्ता है। जो साधक संयमसाधना से भटक जाते हैं, उन्हें आचार्य सही मार्गदर्शन देता है। योग्य प्रायश्चित्त देकर उनकी संशुद्धि करता है। वह दीपक की तरह स्वयं ज्योतिमान होता है और दूसरों को ज्योति प्रदान करता है ।
चतुर्थ पद में उपाध्याय को नमस्कार किया गया है । उपाध्याय ज्ञान का अधिष्ठाता होता है । वह स्वयं ज्ञानाराधना करता है और साथ ही सभी को आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करता है। पापाचार से विरत होने के लिए ज्ञान की साधना अनिवार्य है । उपाध्याय ज्ञान की उपासना से संघ में अभिनव चेतना का संचार करता है।
पांचवें पद में साधु को नमस्कार किया गया है। जो मोक्षमार्ग की साधना करता है, वह साधु है। साधु सर्वविरति-साधना पथ का पथिक है । वह परस्वभाव का परित्याग कर आत्मस्वभाव में रमण करता है। वह अशुभोपयोग को छोड़कर शुभोपयोग और शुद्धोपयोग में रमण करता है। उसके जीवन के कण-कण में अहिंसा
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