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का आलोक जगमगाता रहता है; सत्य की सुगन्ध महकती रहती है । अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की उदात्त भावनाएँ अंगड़ाइयाँ लेती रहती हैं। वह मन, वचन और काय से महाव्रतों का पालन करता है।
जैनधर्म में मूल तीन तत्त्व माने गए हैं— देव, गुरु और धर्म । तीनों ही तत्त्व नमोक्कार महामन्त्र में देखे जा सकते हैं। अरिहन्त जीवनमुक्त परमात्मा हैं तो सिद्ध विदेहमुक्त परमात्मा हैं । ये दोनों आत्मविकास की दृष्टि से पूर्णत्व को प्राप्त किए हुए हैं। इसलिए इनकी परिगणना देवत्व की कोटि में की जाती है। आचार्य, उपाध्याय और साधु आत्मविकास की अपूर्ण अवस्था में हैं, पर उनका लक्ष्य निरन्तर पूर्णता की ओर बढ़ने का है। इसलिए वे गुरुत्त्व की कोटि में हैं। पांचों पदों में अहिंसा, सत्य, तप आदि भावों का प्राधान्य है । इसलिए वे धर्म की कोटि में हैं। इस तरह तीनों ही तत्त्व इस महामन्त्र में परिलक्षित होते हैं।
नमोक्कार महामन्त्र पर चिन्तन करते हुए प्राचीन आचार्यों के एक अभिनव कल्पना की है और वह कल्पना है रंग की। रंग प्रकृतिनटी की रहस्यपूर्ण प्रतिध्वनियाँ हैं, जो बहुत ही सार्थक हैं। रंगों की अपनी एक भाषा होती है। उसे हर व्यक्ति समझ नहीं सकता, किन्तु वे अपना प्रभाव दिखाते ही हैं । पाश्चात्य देशों में रंगविज्ञान के सम्बन्ध में गहराई से अन्वेषणा की जा रही है। आज रंगचिकित्सा एक स्वतंत्र चिकित्सा पद्धति के रूप में विकसित हो चुकी है। रंगविज्ञान का नमोक्कार मन्त्र के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है। यदि हम उसे जानें तो उससे अधिक लाभान्वित हो सकते हैं। आचार्यों ने अरिहन्तों का रंग श्वेत, सिद्धों का रंग लाल, आचार्य का रंग पीला, उपाध्याय का रंग नीला तथा साधु का रंग काला बताया है। हमारा सारा मूर्त संसार पौद्गलिक है। पुद्गल में वर्ण, गंध रस और स्पर्श होते हैं। वर्ण का हमारे शरीर, हमारे मन, आवेग और कषायों से अत्यधिक सम्बन्ध है। शारीरिक स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य, मन का स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य, आवेगों की वृद्धि और कमी — ये सभी इन रहस्यों पर आधृत हैं कि हमारा किन-किन रंगों के प्रति रुझान है तथा हम किन-किन रंगों से आकर्षित और विकर्षित होते हैं । नीला रंग जब शरीर में कम होता है तब क्रोध की मात्रा बढ़ जाती है। नीले रंग की पूर्ति होने पर क्रोध स्वत: ही कम हो जाता है। श्वेत रंग की कमी होने पर स्वास्थ्य लड़खड़ाने लगता है। लाल रंग की न्यूनता से आलस्य और जड़ता बढ़ने लगती है। पीले रंग की कमी से ज्ञानतन्तु निष्क्रिय हो जाते हैं और जब ज्ञानतन्तु निष्क्रिय हो जाते हैं, तब समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता। काले रंग की कमी होने पर प्रतिरोध की शक्ति कम हो जाती है। रंगों के साथ मानव के शरीर का कितना गहन सम्बन्ध है, यह इससे स्पष्ट है । 'नमो अरिहंताण' का ध्यान श्वेत वर्ण के साथ किया जाय । श्वेत वर्ण हमारी आन्तरिक शक्तियों को जागृत करने में सक्षम है। यह समूचे ज्ञान का संवाहक है। श्वेत वर्ण स्वास्थ्य का प्रतीक है। हमारे शरीर में रक्त की जो कोशिकाएं हैं, वे मुख्य रूप से दो रंग की हैं— श्वेत रक्तकणिकाएँ (W.B.C.) और लाल रक्त कणिकाएँ (R.B.C.) । जब भी हमारे शरीर में इन रक्तकणिकाओं का संतुलन बिगड़ता है तो शरीर रुग्ण हो जाता है । 'नमो अरिहंताणं' का जाप करने से शरीर में श्वेत रंग की पूर्ति होती है । 'नमो सिद्धाणं' का बाल सूर्य जैसा लाल वर्ण है । हमारी आन्तरिक दृष्टि को लाल वर्ण जाग्रत करता है। पीट्यूटरी ग्लेण्डस् के अन्तःस्राव को लाल रंग नियन्त्रित करता है । इस रंग से शरीर में सक्रियता आती है। 'नमो सिद्धाणं' मन्त्र, लाल वर्ण और दर्शन केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित करने से स्फूर्ति का संचार होता है। 'नमो आयरियाणं' – इसका रंग पीला है। यह रंग हमारे मन को सक्रिय बनाता है। शरीरशास्त्रियों का मानना है कि थायराइड ग्लेण्ड आवेगों पर नियन्त्रण करता है । इस ग्रन्थि का स्थान कंठ है। आचार्य के पीले रंग के साथ विशुद्धि केन्द्र पर 'नमो आयरियाणं' का ध्यान करने से पवित्रता की संवृद्धि होती है । ‘नमो उवज्झायाणं' का रंग नीला है। शरीर में नीले रंग की पूर्ति इस पद के जप से होती हैं ।
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