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चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-१]
[१३७ रयण जाव उववज्जित्तए से णं भंते! केवति० जाव उववज्जेज्जा?
गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सट्टितीएसु उववज्जेजा। _ [४४ प्र.] भगवन् ! उत्कृष्टकाल की स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जो जीव जघन्यकाल की स्थिति वाले रत्नप्रभा के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है?
[४४ उ.] गौतम! वह जघन्य और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। ४५. ते णं भंते !०? सेसं तं चेव जहा–सत्तमगमे जाव—(अणुबंधो)। [४५ प्र.] भगवन् ! वे जीव एकसमय में कितने उत्पन्न होते हैं?
[४५ उ.] गौतम! जैसे सप्तम गमक में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी अनुबन्ध तक (जानना चाहिए)।
४६. से णं भंते! उक्कोसकालट्ठिती० जाव तिरिक्खजोणिए जहन्नकालद्वितीयरयणप्पभा० जाव करेज्जा?
गोयमा ! भवाएसेणं दो भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया; एवतियं जाव करेज्जा। [सु० ४४-४६ अट्ठमो गमओ]।
[४६ प्र.] भगवन् ! जो जीव उत्कृष्टकाल की स्थिति वाला यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हो, फिर वह जघन्यकाल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो और पुनः वही पर्याप्त० हो यावत् तो वह कितना काल सेवन तथा गमनागमन करता है?
[४६ उ.] गौतम! वह भवादेश से दो भव ग्रहण करता है तथा कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटिवर्ष; इतने काल तक गमनागमन करता है। [सू. ४४ से ४६ तक अष्टम गमक]
४७. उक्कोसकालट्ठितीयपज्जत्ता० जाव तिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए उक्कोसकालद्वितीएसु रयण० जाव उववज्जित्तए से णं भंते! केवतिकाल० जाव उववज्जेज्जा?
गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखज्जतिभागद्वितीएसु, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागट्ठितीएसु उववज्जेज्जा।
[४७ प्र.] भगवन् ! उत्कृष्टकाल की स्थिति वाला पर्याप्त० यावत् तिर्यञ्चयोनिक जो जीव, रत्नप्रभापृथ्वी के उत्कृष्टस्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो भगवन् ! वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है?