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________________ १३८] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [४७ उ.] गौतम! वह जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले और उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। ४८. ते णं भंते! जीवा एगसमएणं०? सेसं जहा सत्तमगमए जाव—(अणुबंधो)। [४८ प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? [४८ उ.] गौतम! पूर्ववत् यावत् (अनुबन्ध तक) सभी (आलापक) सप्तम गमक के अनुसार (समझने चाहिए)। ४९. से णं भंते! उक्कोसकालद्वितीयपज्जत्ता० जाव तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालद्वितीयरयणप्पभा० जाव करेज्जा? गोयमा ! भवाएसेणं दो भवग्गहणाइं; कालाएसेणं जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागं पुव्वकोडीए अब्भहियं, उक्कोसेणं वि पलिओवमस्स असंखेजतिभागं पुव्वकोडिमब्भहियं; एवतियं कालं सेवेज्जा जाव करेज्जा। [सु० ४७-४९ नवमो गमओ]। [४९ प्र.] भगवन् ! वह जीव, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त यावत् (पंचेन्द्रिय) तिर्यञ्चयोनिक हो, फिर वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में (उत्पन्न हो और पुन:) यावत् उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में हो तो (कितना काल सेवन एवं गमनागमन) करता है? . [४९ उ.] गौतम! भवादेश से वह दो भव ग्रहण करता है तथा कालादेश से जघन्य पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, इतना काल सेवन (व्यतीत करता है) यावत् (गमनागमन) करता है। [सू. ४७ से ४९ तक नौवाँ गमक] ५०. एवं एए ओहिया तिण्णि गमगा, जहन्नकालट्ठितीएसु तिन्नि गमगा, उक्कोसकालट्ठितीएसु तिन्नि गमगा; सव्वेते नव गमा भवंति। [५०] इस प्रकार (पूर्वोक्त गमकों में से) ये तीन गमक औधिक (सामान्य) हैं, तीन गमक जघन्यकाल की स्थिति वालों ( में उत्पत्ति) के हैं और तीन गमक उत्कृष्टकाल की स्थिति वालों (में उत्पत्ति) के हैं। ये सब मिलाकर नौ गमक होते हैं। विवेचन–नौ गमकों का स्पष्टीकरण--(१) पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव का रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होना, यह पहला गमक है, (२) जघन्यकाल-स्थिति वाले प्रथम नरक के नैरयिकों में उत्पन्न होना, यह दूसरा गमक है; (३) उत्कृष्टस्थिति वाले प्रथम नरक के नैरयिकों में उत्पन्न होना, यह तीसरा गमक है। इस प्रकार पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक के साथ किसी प्रकार का विशेषण लगाये बिना तीन गमक होते हैं । तत्पश्चात् जघन्य स्थिति वाले पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव से
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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