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________________ चौवीसवाँ शतक : उद्देशक-१] [१३५ [३७ उ.] गौतम! भवादेश से वह दो भव ग्रहण करता है और कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष काल सेवन करता है, यावत् (और इतने काल तक गमनागमन) करता है। [सू. ३५ से ३७ तक पंचम गमक] ३८. जहन्नकालद्वितीयपज्जत्ता० जाव तिरिक्खजोणिए णं भंते! जे भविए उक्कोसकालद्वितीएसु रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते! केवतिकालट्ठितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागट्ठितीएसु उववज्जेज्जा, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेजतिभागट्ठितीएसु उववजेज्जा। ___ [३८ प्र.] भगवन् ! जघन्यकाल की स्थिति वाला, पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, जो रत्नप्रभापृथ्वी के उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है? [३८ उ.] गौतम ! वह जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले और उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। ३९. ते णं भंते जीवा०? अवसेसं तं चेव। ताई चेव तिनि नाणत्ताई जाव—(अणुबंधो)। [३९ प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न। [३९ उ.] गौतम! (यह सब सू.६ से ३४ तक के समान) पूर्ववत् । विशेषत: उन्हीं (पूर्वोक्त) तीन बातों (आयु, अध्यवसाय और अनुबन्ध) में अन्तर है। जिसे पूर्वकथित अनुबन्ध तक सूत्र ३३/१-२-३-४ के समान जानना चाहिए। ४०. से णं भंते! जहन्नकालद्वितीयपज्जत्ता जाव तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालद्वितीयरयण० जाव करेज्जा? गोयमा ! भवाएसेणं दो भवग्गहणाई, कालाएसेणं जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेजतिभागं अंतोमुहुत्तमब्भहियं, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागं अंतोमुत्तमब्भहियं, एवतियं कालं जाव करेज्जा। [सु० ३८-४० छट्ठो गमओ]। [४० प्र.] भगवन् ! वह जीव, जघन्यकाल की स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तियञ्चयोनिक हो, फिर वह उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में यावत् उत्पन्न हो और पुनः पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हो तो, वह कितना काल सेवन करता है और कितने काल तक गमनागमन करता है ? [४० उ.] गौतम ! भवादेश से (वह) दो भव ग्रहण करता है और कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग काल यावत् (सेवन करता है और इतने काल तक गमनागमन) करता है। [सू. ३८ से ४० तक छठा गमक]
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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