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इक्कीसवाँ शतक : प्रथम वर्ग]
[९७ [उ.७. सू. १] पत्र के विषय में भी (पूर्ववत् समग्र सप्तम) उद्देशक कहना चाहिए। ये सातों ही उद्देशक समग्ररूप से 'मूल' उद्देशक के समान जानने चाहिए।
८-१. एवं पुष्फे वि उद्देसओ, नवरं देवो उववजत्ति जहा उप्पलुद्देसे ( स० ११ ३० १ सु० ५)। चत्तारिलेस्साओ, असीति भंगा।ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं अंगुलपुहत्तं। सेसं तं चेव।
[उ. ८, सू. १] 'पुष्प' के विषय में भी इसी प्रकार (पूर्ववत् समग्र अष्टम) उद्देशक कहना चाहिए। विशेष यह है कि पुष्प' के रूप में देव (आकर) उत्पन्न होता है। ग्यारहवें शतक के प्रथम उत्पलोदेशक में जिस प्रकार चार लेश्याएँ और उनके अस्सी भंग कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहने चाहिए। इसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अंगुल-पृथक्त्व की होती है। शेष सब पूर्ववत् है। .. ९-१. जहा पुप्फे एवं फले वि उद्देसओ अपरिसेसो भाणियव्यो।
__ [उ. ९, सू. १] जिस प्रकार 'पुष्प' के विषय में कहा है, उसी प्रकार 'फल' के विषय में भी समग्र (नौवाँ) उद्देशक कहना चाहिए।
१०-१. एवं बीए वि उद्देसओ। एए दस उद्देसगा। सेवं भंते ! सेवं भंते !
॥ पढमो वग्गो समत्तो॥ [उ. १०, सू. १] 'बीज' के विषय में भी इसी प्रकार (पूर्ववत् दसवाँ) उद्देशक कहना चाहिए। इस प्रकार प्रथम वर्ग के ये दस उद्देशक पूर्ण हुए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरने लगे।
विवेचन—इन नौ उद्देशकों को नौ सूत्रों में दूसरे से दसवें उद्देशक के रूप में मूल उद्देशक के अतिदेशपूर्वक (कुछ बातों में अन्तर के सिवाय) क्रमशः कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज नाम से समग्र एक-एक उद्देशक कहा गया है।
देवों की उत्पत्ति—मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल और पत्र, इन सात में देव उत्पन्न नहीं होते, वे पुष्प, फल और बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं।
पुष्पादि में चार लेश्याएँ, अस्सी भंग-पुष्प, फल और बीज में चार लेश्याएँ होती हैं, क्योंकि इनमें देव आकर उत्पन्न होते हैं। कृष्ण, नील, कापोत और तेजो लेश्याओं के एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से