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________________ इक्कीसवाँ शतक : उद्देशक-१] [९५ बतलाई गई है, किन्तु यहाँ शालि आदि वनस्पति के मूल में देवों की उत्पत्ति का निषेध इसलिए किया गया है कि देव वनस्पति के पुष्प आदि शुभ अंगों में उत्पन्न होते हैं, परन्तु उसके मूल आदि अशुभ अंगों में नहीं। इसलिए मूलपाठ में कहा गया है—'णवरं देवव्रजं।' अर्थात् देव देवगति से आकर शालि आदि के मूल आदि में उत्पन्न नहीं होते। वनस्पति में जघन्य एक, दो आदि की उत्पत्ति का कथन कैसे? – यद्यपि वनस्पति में सामान्यतया प्रतिसमय अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं, किन्तु शालि आदि प्रत्येकशरीरी होने से इनमें जघन्यतः एक, दो आदि की उत्पत्ति का कथन सिद्धान्तविरुद्ध नहीं है। अपहार—उन शालि आदि के जीवों का प्रतिसमय अपहार किया जाए (एक-एक करके निकाला जाए), तो असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी बीत जाने पर भी वे पूरी तरह निकाले नहीं जा सकते। (यद्यपि ऐसा किसी ने कभी किया नहीं और किया भी नहीं जा सकता)। कर्मबन्धक–शालि आदि के जीव ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्धक हैं, अबन्धक नहीं। लेश्या सम्बन्धी छव्वीस भंग-कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं के एकवचन और बहुवचन से सम्बन्धित असंयोगी तीन-तीन भंग होने से छह भंग असंयोगी होते हैं। कृष्ण-नील, कृष्ण-कापोत और नीलकापोत, यों द्विकसंयोगी तीन भंग होते हैं। इनके प्रत्येक के एकवचन और बहुवचन से सम्बन्धित चार-चार भंग होने से कल १२ भंग द्विकसंयोगी हए। त्रिकसंयोगी एकवचन और बहवचन सम्बन्धी आठ भंग होते हैं। इस प्रकार ये कुल ६+१२+८=२६ भंग होते हैं। दो प्रकार की स्थिति-भव की अपेक्षा इनकी गमनागमन की स्थिति जघन्य दो भव की और उत्कृष्ट असंख्यात भव तक की है, जबकि काल की अपेक्षा स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक की है। समुद्घात-प्राप्ति—शालि आदि जीवों में वेदना, कषाय और मरण, ये तीन समुद्घात होते हैं। ये समुद्घात करके भी मरते हैं और समुद्घात किये विना भी मरते हैं । मर कर ये मनुष्य और तिर्यञ्च गति में जाते हैं, इत्यादि वर्णन ग्यारहवें शतक के प्रथम उद्देशक के अनुसार जान लेना चाहिए। दृष्टि आदि–मिथ्यादृष्टि हैं, अज्ञानी हैं, काययोगी हैं, द्विविध उपयोगी हैं, इत्यादि सब उत्पलोदेशक के अनुसार कहना चाहिए। ॥ इक्कीसवाँ शतक : प्रथमवर्ग, प्रथम उद्देशक समाप्त। *** १. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ८०१ (ख) 'गोयमा ! अबंधगा, बंधए वा बंधगा वा।' -उत्पलोद्देशक शतक ११, ३. १. (ग) भगवती. विवेचन भा.६, (पं. घेवरचन्दजी), पृ. २९४५
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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