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________________ [ व्याख्याप्रज्ञाप्तसूत्र [११ उ.] हे गौतम ! ( इसका समाधान ग्यारहवें शतक के ) उत्पल - उद्देशक के अनुसार (जानना चाहिए) - ९४] १२. एएणं अभिलावेणं जाव मणुस्सजीवे । [१२] इस अभिलाप से मनुष्य एवं सामान्य जीव के ( अभिलाप तक कहना चाहिए)। १३. आहारो जहा उप्पलुद्देसे (स० ११ उ० १ सु० २१ ) । [१३] आहार (सम्बन्धी निरूपण) भी (पूर्वोक्त) उत्पलोद्देशक के समान है। १४. ठिती जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वासपुहत्तं । [१४] (इन जीवों की) स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट वर्ष- पृथक्त्व (दो वर्ष से लेकर नौ वर्ष तक) की है। १५. समुग्धायसमोहया य उव्वट्टणा य जहा उप्पलुद्देसे (स० ११ उ० १ सु० ४२ - ४४ ) । [४५] समुद्घात-समवहत ( समुद्घात की प्राप्ति) और उद्वर्त्तना (पूर्वोक्त) उत्पलोद्देशक के अनुसार है । १६. अह भंते ! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता साली वीही जाव जवजवगमूलगजीवत्ताए उववन्नपुव्वा ? हंता, गोयमा ! असतिं अदुवा अनंतखुत्तो । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० । ॥ गवीसतिमे एस : पढमे वग्गे पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ २१-१-१॥ [१६ प्र.] भगवन् ! क्या सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव और सर्व सत्त्व शालि, व्रीहि, यावत् जवजव के मूल के जीव रूप में इससे पूर्व उत्पन्न हो चुके हैं ? [१६ उ.] हाँ, गौतम ! (वे इससे पूर्व मूल के जीवरूप में) अनेक वार अथवा अनन्त वार (उत्पन्न हो चुके हैं)। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते I विवेचन-प्रस्तुत प्रथम उद्देशक के १५ सूत्रों (सू. २ से १६ तक) में शालि आदि के मूल के रूप में उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्पत्ति, संख्या आदि के विषय में प्राय: प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के प्रथम उत्पलोद्देशक के अतिदेश- पूर्वक प्ररूपणा की गई है। देवों की उत्पत्ति मूल में क्यों नहीं ? - प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद में वनस्पति में देवों की उत्पत्ति
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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