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________________ इक्कीसवां शतक : उद्देशक-१] [९३ ६. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधगा, अबंधगा ? तहेव जहा उप्पलुद्देसे ( स० ११ उ० १ सु० ९)। [६ प्र.] भगवन् ! वे जीव ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धक हैं या अबन्धक? [६ उ.] गौतम ! जिस प्रकार (ग्यारहवें शतक के) उत्पल-उद्देशक (के सू. ९) में कहा गया है, उसके समान (जानना चाहिये)। ७. एवं वेदे वि, उदए वि, उदीरणाए वि। [७] इसी प्रकार (कर्मों के) वेदन, उदय और उदीरणा के विषय में भी (जानना चाहिये।) ८. ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा नील० काउ०? छव्वीसं भंगा। [८ प्र.] भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी या कापोतलेश्यी होते हैं ? [८ उ.] गौतम ! (यहाँ तीन लेश्या-सम्बन्धी) छव्वीस भंग कहने चाहिए। ९. दिट्ठी जाव इंदिया जहा उप्पलुद्देसे ( स० ११ उ० १ सु० १५-३०)। [९] दृष्टि से लेकर यावत् इन्द्रियों के विषय में (ग्यारहवें शतक के) उत्पलोद्देशक के अनुसार (प्ररूपणा समझनी चाहिए।) १०. से णं भंते ! साली-वीही-गोधूम'-[ जव-] जवजवगमूलगजीवे कालओ केवचिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं। [१० प्र.] भगवन् ! शालि, व्रीहि, गेहूँ, यावत् जौ, जवजव आदि, (इन सब धान्यों) के मूल का जीव कितने काल तक का रहता है ? [१० उ.] गौतम ! (वह मूल का जीव) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहता है। ११. से णं भंते ! साली-वीही-गोधूम-[जव-] जवजवगमूलगजीवे पुढविजीवे पुणरवि साली-वीही जाव जवजवगमूलगजीवे केवतियं सेवेज्जा ?, केवतियं कालं गतिरागतिं करिज्जा? एवं जहा उप्पलुद्देसे ( स० ११ उ० १ सु० ३२)। [११ प्र.] भगवन् ! शालि, व्रीहि, गोधूम, जौ, (यावत्) जवजव (आदि धान्यों) के मूल का जीव, यदि पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न हो और फिर पुनः शालि, व्रीहि यावत् जौ, जवजव आदि धान्यों के मूल रूप में उत्पन्न हो, तो इस रूप में वह कितने काल तक रहता है ? तथा कितने काल तक गति-आगति (गमनागमन) करता रहता हैं? १. पाठान्तर-जाव
SR No.003445
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages914
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size17 MB
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