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एगवीसइमं बावीसइमं तेवीसइमं य सयं इक्कीसवाँ, बाईसवाँ और तेईसवाँ शतक
प्राथमिक
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ये व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र के क्रमश: इक्कीसवाँ, बाईसवाँ और तेईसवाँ तीन शतक हैं। इन तीनों शतकों का वर्ण्यविषय प्रायः एक सरीखा है और एक दूसरे से सम्बन्धित है। इन तीनों शतकों में विभिन्न जाति की वनस्पतियों के विविध वर्गों के मूल से लेकर बीज तक दस प्रकारों के विषय में निम्नोक्त पहलुओं से चर्चा की गई है(१) उनके मूल आदि दसों में उत्पन्न होने वाले जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? (२) वे जीव एक समय में कितनी संख्या में उत्पन्न होते हैं ? (३) उनका अपहार कितने काल में होता है ?
उनके शरीर की अगाहना कितनी होती है ?
वे जीव ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बन्ध, वेदन, उदय और उदीरणा करते हैं या नहीं? (६) वे जीव कितनी लेश्या वाले हैं ? उनमें लेश्या के कितने भंग पाए जाते हैं ?
उनमें दृष्टियाँ कितनी पाई जाती हैं ? (८) उनमें योग कितने हैं, उपयोग कितने होते हैं ? (९) उनमें ज्ञान, अज्ञान कितने हैं ? (१०) उनमें इन्द्रियाँ कितनी होती हैं ? (११) उनकी भवस्थिति कितनी है ? कितने काल तक गति-आगति करते हैं ? अर्थात् गमनागमन
की स्थिति कितनी है ? (१२) उनकी कायस्थिति कितने काल तक की होती है ? (१३) वे कितनी दिशाओं से क्या आहार लेते हैं ? (१४) उन जीवों में कितने समुद्घात होते हैं वे समुद्घात करके मरते हैं या समुद्घात किये विना
ही मरते हैं ? (१५) वे मूलादि के जीव के रूप में पहले उत्पन्न हो चुके हैं या नहीं? इन सब प्रश्नों का सामान्यतया समाधान इक्कीसवें शतक के प्रथम वर्ग के प्रथम (मूल) उद्देशक में
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