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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आकर चैत्यवन्दन करता है । गौतम ! विद्याचारण मुनि की तिरछी गति का विषय ऐसा कहा गया है।
५. विजाचारणस्स णं भंते ! उड्ढें केवतिए गतिविसए पन्नत्ते ?
गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं नंदणवणे समोसरणं करेति, नं० क० २ तहिं चेतियाइं वंदइ, तहिं० वं० २ बितिएणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेइ, पं० क० २ तहिं चेतियाइं वंदति, तहिं० व० २ तओ पडिनियत्तति, तओ० प०.२ इहमागच्छति, इहमा० २ इहं चेतियाई वंदइ। विजाचारणस्स णं गोयमा ! उर्दू एवतिए गतिविसए पन्नत्ते। से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेति, नत्थि तस्स आराहणा; से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेति, अत्थि तस्स आराहणा। _ [५ प्र.] भगवन् ! विद्याचारण की ऊर्ध्वगति का विषय कितना कहा गया है ?
[५ उ.] गौतम ! वह (विद्याचारण) यहाँ से एक उत्पात से नन्दनवन में समवसरण (स्थिति) करता है। वहाँ ठहर कर वह चैत्यों की वन्दना करता है। फिर वहाँ से दूसरे उत्पात से पण्डकवन में समवरसरण करता है, वहाँ भी वह चैत्यों की वन्दना करता है। फिर वहाँ से वह लौटता है और वापस यहाँ आ जाता है। यहाँ आकर वह चैत्यों की वन्दना करता है। हे गौतम ! विद्याचारण मुनि की ऊर्ध्वगति का विषय ऐसा कहा गया है।
यदि वह विद्याचारण मुनि (लब्धि का प्रयोग करने सम्बन्धी) उस (प्रमाद) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये विना ही काल कर (मृत्यु को प्राप्त हो) जाए तो उसकी (चारित्र-) आराधना नहीं होती और यदि वह विद्याचारण मुनि उस (प्रमाद) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसकी (चारित्र-) आराधना होती है।
विवेचन—विद्याचारण की शीघ्रगति का परिमाण–प्रस्तुत तीन सूत्रों (३-४-५) में से प्रथम सूत्र में विद्याचारण मुनि का सार्वत्रिक (सर्व दिशागत) गमनक्रिया की तीव्रता का परिमाण तीन चुटकी बजाने जितने समय में एक महर्द्धिक देव द्वारा तीन बार सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का चक्कर लगाकर आने जितना बताया गया है। द्वितीय और तृतीय सूत्र में क्रमशः उसकी तिर्यग्गति और ऊर्ध्वगति के विषय (क्षेत्र) का प्रतिपादन है।
कठिन शब्दार्थ-सीहा-शीघ्र। उप्पाएण-उत्पात-उड़ान से।
विद्याचारण की तिर्यक् और ऊर्ध्व गति का विषय प्रस्तुत सूत्रद्वय में कहा गया है कि विद्याचारण का गमन दो उत्पात से और आगमन एक उत्पात से होता है। इसका कारण उक्त लब्धि का स्वभाव समझना चाहिए। किन्हीं आचार्यों का मत है कि विद्याचारण की विद्या आते समय विशेष अभ्यास वाली हो जाती है, किन्तु गमन के समय में वैसी अभ्यास वाली नहीं होती। इस कारण आते समय वह एक ही उत्पात में यहाँ आ जाता है, किन्तु जाते समय दो उत्पात से वहाँ पहुँचता है।'
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ७९५